हाल ही नई कहानी लिखकर पूरी की है। उसके कुछ अंश आप प्रिय पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं। पूरी कहानी के लिए आपको एक बार इंतजार करना होगा।
"" एक दिन बूढे़ प्रधानमंत्री ने लाल किले से खुश होकर कहा कि चूंकि अब हमारा पेट ऊपर तक भर गया है। इसलिए सीधे सीधे कुछ खाना मुमकिन नहीं है। अब दूसरे तरीके से कुछ और खाएंगे और जनता को खिलाएंगे। अब हर स्कूल आने वाले बच्चे को हर महीने दस सेर गेहूं मिलेगा। वो पढाई के लालच में भले ही ना आए लेकिन उसके घर वाले गेहूं के लालच में जरूर पढ़न
े भेजेंगे। सरकार की ओर से बंटने वाली इस ‘खैरात’ में पहले बच्चे को तौलकर अनाज दिया जाने लगा। इस तुला में भी वही खूबी थी, जो इस देश के बनियों, ठेले, सब्जीवालों की सारी तुलाओं में होती थी। यह कमबख्त कम तौलती थी। दस सेर की जगह आठ सेर तौल दिया। बच्चे तो बच्चे थे, शिकायत करते तो यह तुला उन्हें डांट देती थी कि जितना मिल रहा है, उतना क्या कम है? यह तो मुफ्त का माल है और इसमें भी तुम्हें पूरा तौल चाहिए। बच्चे चुप करा दिए गए। बचा हुआ गेहूं विद्यालय के अध्यापकों के घर जाने लगा। जब उनकी पत्नियों ने आपत्ति जताई कि इस गेहूं की रोटियां बनने के बाद ज्यादा काली दिखती है तो मेघ सिंह ने अपने उपलब्ध ज्ञान के आधार पर कह दिया कि यह सरकारी गेहूं है। इसमें आयरन ज्यादा है।
सच बात तो यह थी कि इस देश में खूब भुखमरी के बावजूद सरकार के पास गेहूं इतना ज्यादा हो गया था कि रखने के लिए जगह ही नहीं बची थी। वह धूप में तपता था। बारिश में भीगता था। बाढ में बहता था। आग में जलता था। इसके बावजूद सरकारी अफसरों ने सरकार तक यह खबर भिजवाई कि सब हादसों और आपदाओं के बावजूद गेहूं बहुत बच गया है। हम भी कितना खाएंगे। हमारा भी पेट भर गया है। यह गेहूं भीग भी गया है। इसे अब देश के स्कूलों में बंटवा दो।
मेघ सिंह की आयरन वाली दलील को पहले तो उसकी पत्नी ने मान लिया लेकिन जब रोटियों में स्वाद ही गायब मिलता रहा तो उस गेहूं का दलिया पीसकर उसने अपनी बकरियों का खिलाना शुरू कर दिया। बकरियां मौन थी। वे ना प्रधानमंत्री को शिकायत कर सकती थीं ना मेघ सिंह को। बस चबर चबर गेहूं का दलिया चबाती।
उस दौर में गांव में सबसे ज्यादा खुश वे बकरियां ही थीं जिन्हें सरकारी गेहूं भी खाने को मिलता था और पढ़ना भी नहीं पड़ता था।
एक दिन खेत में चरते हुए सरपंच की बकरियों से मेघ सिंह की बकरियों की मुलाकात हुई। उनकी खूबसूरती देखकर सरपंच की भूरती बकरी ने मेघ सिंह की चितकबरी बकरी से पूछा,
‘बहन, बहुत सुंदर हो गई हो इन दिनों। राज क्या है ?’
चितकबरी ने कहा, ‘क्या बताऊं बहन, आजकल चारे के साथ जोरदार अनाज भी मिलता है। तुम जानती हो, खेत में उगने वाले गंवार से तो मुझे मोटे होने का खतरा था लेकिन यह तो सरकारी गेहूं है, धुला हुआ एकदम। इसमें प्रोटीन कुछ ज्यादा ही लगता है। फिर मुफ्त का है तो जब तक मेरा पेट नहीं भर जाता तब तक मालकिन बर्तन हटाती नहीं है। मुझे तो खेत में सिर्फ चहलकदमी के लिए आना होता है। वरना खाने पीने की तो घर में कमी नहीं है बहन। मैं तो दुआ करती हूं कि अगले जन्म में भी भगवान अगर ठीक समझे तो मुझे सरकारी मास्टर के यहीं बकरी बनाकर भेजे।’ ""
सच बात तो यह थी कि इस देश में खूब भुखमरी के बावजूद सरकार के पास गेहूं इतना ज्यादा हो गया था कि रखने के लिए जगह ही नहीं बची थी। वह धूप में तपता था। बारिश में भीगता था। बाढ में बहता था। आग में जलता था। इसके बावजूद सरकारी अफसरों ने सरकार तक यह खबर भिजवाई कि सब हादसों और आपदाओं के बावजूद गेहूं बहुत बच गया है। हम भी कितना खाएंगे। हमारा भी पेट भर गया है। यह गेहूं भीग भी गया है। इसे अब देश के स्कूलों में बंटवा दो।
मेघ सिंह की आयरन वाली दलील को पहले तो उसकी पत्नी ने मान लिया लेकिन जब रोटियों में स्वाद ही गायब मिलता रहा तो उस गेहूं का दलिया पीसकर उसने अपनी बकरियों का खिलाना शुरू कर दिया। बकरियां मौन थी। वे ना प्रधानमंत्री को शिकायत कर सकती थीं ना मेघ सिंह को। बस चबर चबर गेहूं का दलिया चबाती।
उस दौर में गांव में सबसे ज्यादा खुश वे बकरियां ही थीं जिन्हें सरकारी गेहूं भी खाने को मिलता था और पढ़ना भी नहीं पड़ता था।
एक दिन खेत में चरते हुए सरपंच की बकरियों से मेघ सिंह की बकरियों की मुलाकात हुई। उनकी खूबसूरती देखकर सरपंच की भूरती बकरी ने मेघ सिंह की चितकबरी बकरी से पूछा,
‘बहन, बहुत सुंदर हो गई हो इन दिनों। राज क्या है ?’
चितकबरी ने कहा, ‘क्या बताऊं बहन, आजकल चारे के साथ जोरदार अनाज भी मिलता है। तुम जानती हो, खेत में उगने वाले गंवार से तो मुझे मोटे होने का खतरा था लेकिन यह तो सरकारी गेहूं है, धुला हुआ एकदम। इसमें प्रोटीन कुछ ज्यादा ही लगता है। फिर मुफ्त का है तो जब तक मेरा पेट नहीं भर जाता तब तक मालकिन बर्तन हटाती नहीं है। मुझे तो खेत में सिर्फ चहलकदमी के लिए आना होता है। वरना खाने पीने की तो घर में कमी नहीं है बहन। मैं तो दुआ करती हूं कि अगले जन्म में भी भगवान अगर ठीक समझे तो मुझे सरकारी मास्टर के यहीं बकरी बनाकर भेजे।’ ""
2 टिप्पणियां:
बहुत खूब, सब खा रहे हैं, बकरी तो सबसे अधिक प्रसन्न है।
बहुत रोचक! पूरी कहानी कब मिलेगी पढ़ने को।
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