बावजूद इसके कि परंपरागत हिंदी वालों की तरह मुझे अंग्रेजी से उस तरह की
कोई दुश्मनी नहीं है कि मैं उसे खदेड़ने का झंडा लेकर खड़ा हो जाऊं।
लेकिन वही अंग्रजी जब आम पाठक तक हिंदी के अखबार से पहुंचती है तो
तकलीफदेह है। हमारे समय की सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि हमारे पूरे
मीडिया पर विज्ञापन, बाजार और उसके दबाव काम कर रहे हैं लेकिन मुझे यह
एजंडा कतई समझ नहीं आता कि हिंदी के अखबार में शाब्दिक ढंग से तो
अंग्रेजी घुस ही रही थी, अब उसकी लिपि भी घुस रही है। दुर्भाग्य की बात
यह है कि भाषा को इस समय रीजनल मीडिया में गंभीरता से लिया ही नहीं जा
रहा। आप देख सकते हैं कि एक ही अखबार एक ही शब्द को कई तरह से छापता है।
जैसे हिंदी नवभारत टाइम्स ने अपना मास्ट हैड रोमन में कर दिया था, ऐसा
करने मात्र से क्या युवा पीढी जिसके बारे में हमने मान लिया है कि वे
अंग्रेजी ही पढेंगे और यह सब उनके लिए किया जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा
है कि हिंदी के अखबारों की प्रसार संख्या लगातार बढ रही है। आई
नैक्स्ट और कॉम्पेक्ट का प्रयोग देख ही रहे हैं। दूसरे अखबारों में
बॉम्बे टाइम्स की नकल पर शुरू हुए नगरीय लाइफ स्टाइल परिशिष्टों की
भी यही हालत है। यह कितना कुतर्क है कि लिपि या शब्द अंग्रेजीदां या
हिंगलिश कर देने से युवा पीढी किसी अखबार से जुड़ सकती है। जबकि सच्चाई
यह है कि कथ्य और विषय वस्तु के लिहाज से गुणवत्ता का भीषण पतन हुआ
है।
असल में महानगरों में पत्रकारिता के केंद्र बने हुए हैं। हिंदी अखबारों
के केंद्र में आप दिल्ली को भले ही मानते रहें लेकिन सच्चाई यह है कि
हिंदी पत्रकारिता की बड़ी दुनिया दिल्ली से बाहर है। दिल्ली मुंबई जैसे
कॉस्मोपॉलिटन्स से इतर यह दुनिया पटना, भोपाल, जयपुर, लखनऊ और कानपुर
जैसे शहरों में बडी है। इनके सबसे बडे़ पाठक जो पढ रहे हैं वे महानगरों
से दूर देहातों और कस्बों के पाठक भी हैं और आश्चर्यजनक रूप से हमारे
मौजूदा हिंदी अखबार इस बात के अपराधी हैं कि वे पूरे हिंदी समाज की भाषा
को एक महानगरीय अहम के साथ खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। आप मुझे क्या
समझा सकते हैं कि रविवार विशेष के स्थान पर SUNDAY SPECIAL लिख देने से
किसी भी हिंदी अखबार के पाठक बढते हैं। मुझे समझ नहीं आता कि दूर दराज के
कस्बों और देहातों के बारे में हमारे पत्रकार और डिजायनर समझते ही नहीं
है। मैंने तर्क किए हैं ऐसे मौकों पर कि भाई ऐसा क्यों लिख रहे हो, तो
तर्क आता है कि यह ‘मॉडर्न ले आउट’ है, मैं उससे कहता हूं तुम्हारी औकात
कंप्यूटर के की बोर्ड पर लिखे अक्षरों से ज्यादा अंग्रेजी जानने की
नहीं है फिर तुम उन सब लोगों की भाषा क्यों खराब कर रहे हो, जो इतनी भी
नहीं जानते। तो अगला कुतर्क है कि नहीं जानते तो वे जानेंगे। क्यों
जानेंगे कि क्या आपने किसी समाज को वो भाषा पढाने का ठेका लिया है, जिसे
आप खुद नहीं जानते। हमारे बहुसंख्यक हिंदी पत्रकारों की हालत अंग्रेजी
के मामले में ऐसी ही हो गई है। या ऐसा मान लीजिए कि उन पर दबाव हैं
प्रबंधन के की भाषा बदलो। मुझे हमेशा लगता है कि आपको अंग्रेजी से इतना
ही मोह है तो अंग्रेजी अखबार निकालिए। कम से कम भाषायी उदारीकरण के आधार
पर बहुसंख्यक समाज के गद्य को क्यों खराब कर रहे हैं? खासकर तब जब उस
तरह की भाषा कर देने से अखबार के पाठक नहीं बढते हैं। यह कितना बड़ा
कुप्रचार अखबार के वितरण और विपणन विभाग वाले एमबीए ब्रांड लोग करते हैं
कि ऐसा करने से चीजें बदल जाएंगी। दुर्भाग्य से कुछेक जगह छोड़कर हिंदी
की भाषायी पत्रकारिता में विषय वस्तु को लेकर चिंता ही नहीं है। अखबारों
के फीचर विभाग और विशेष आलेखों के विभाग इंटरनेट पर इतने आधारित है कि
अंग्रेजी के पिष्टपेषण में लगे हुए हैं। मौलिक चिंतन, फीचर और आलेखों का
नितांत अभाव है और भाषायी लिहाज से हमें एक खतरनाक भविष्य की ओर ले
जाया जा रहा है।
एक मिनट के लिए मान लीजिए कि इससे भी समाज की भाषा खराब नहीं होती तो
मुझे उससे भी बड़ी सहानुभूति उन हिंदी के पत्रकारों के साथ है, जो इस दौर
में पत्रकारिता में आ रहे हैं। उन पर हिंगलिश लिखने का दबाव है। वे सबसे
दुर्भाग्शाली युवा हैं, वे पांच दस साल की कलमघिसाई के बाद ना तो अच्छी
हिंदी लिखने के काबिल हैं और ना ही अच्छी अंग्रेजी के। एक खिचड़ी पीढी
के पत्रकार इस समय पैदा हो रहे हैं और पंद्रह साल बाद जब ये लोग अलग अलग
संस्करणों के संपादक होंगे और अपने समाज को जो भाषा पढाएंगे उसकी
कल्पना मात्र से मैं कांपता हूं।
हिंदी को लेकर ये सब लोग उतने ही अपराधी हैं जिन्होंने हिंदी को जटिल
करने और संस्कृतनिष्ठ करने की कोशिश की। दोनों की हालत में नुकसान इसी
भाषा का है। और यह तर्क भी मत सुनिए भूलिए कि कोई समाज अखबार से अपनी
भाषा नहीं सीखता। आप कैसे मान सकते हैं कि जिस हिंदी में पढ़ने के नाम पर
सबसे ज्यादा हिंदी अखबार ही पढे जाते हैं तो वे किसी साक्षर समाज की
भाषा का निर्माण करने के सबसे जिम्मेदार माध्यम हैं।
एक और बात जो मुझे हमेशा परेशान करती है कि कहने को आम आदमी का दावा हम
लोग करते हैं लेकिन मैं दावे से कह सकता हूं कि हमारे बहुसंख्यक भाषायी
मीडिया के पास उस आम आदमी के हक का एजंडा तेजी से गायब होता जा रहा है।
यह बात मैं अधिकारपूर्वक कह सकता हूं। हिंदी के ज्यादातर अखबारों के
नगरीय और डाक संस्करण के फर्क को देख लीजिए। हमारे पत्रकार ना जाने किस
फूंक में रहते हैं। महानगर में रहने वालों के लिए कस्बा और गांव तो खबर
ही नहीं है। यह कितनी बड़ी विडम्बना हमारे समय की है कि अखबारों के
स्थानीय संस्करण तेजी से बढे हैं ताकि वे स्थानीय खबरों को अहमियत दे
सकें लेकिन अफसोसजनक ढंग से उनकी विषय वस्तु उतनी ही घटिया और गैर जरूरी
हो गई है। वहां आधे से ज्यादा पेज इस बात से भरे रहते हैं कि किस मंदिर
में क्या सत्संग चल रहा है। कौनसे चौराहे पर जुआ खेलते लोग पकड़े गए
हैं और किस घर में क्रिकेट का सट़टा चल रहा था। अस्सी फीसदी स्थानीय
समाचार रद़दी में फेंकने लायक होते हैं लेकिन वे प्रमुखता से छपते हैं।
तो यह अपराध भी हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से हो रहा है कि जिस तरह
राजनीति, समाज और अपराध या विकास को लेकिन एक समाज संवेदनशील होने की
प्रक्रिया से गुजरता है, वह खंडित हो गई है। स्थानीय प्रशासन को फर्क ही
नहीं पड़ता है उनको पता है कि इस अखबार को इलाके का एमएलए भी नहीं पढ रहा
क्योंकि इस समय विधानसभा चल रही है और वह राजधानी में है। तेजी से
गांवों को पत्रकारिता से बेदखल किया जा रहा है, जहां इस देश की
बहुसंख्यक आबादी रहती है।
तो इस बात का यह अर्थ ना लगाएं आप कि जो स्थानीय स्तर पर पत्रकार काम
कर रहे हैं, वह गैर जरूरी है। असल में उनको प्रशिक्षित करने का कोई एजंडा
नहीं है कि उन्हें किस तरह से घटनाओं के प्रति संवेदनशील बनाया जाए। यही
वजह है कि हमारे भाषायी अखबारों की भारी भरकम प्रसार संख्या के बावजूद
पिछले कितने सालों में ऐसी कोई खबर उभरकर नहीं आई जो सत्ता या भ्रष्ट
तंत्र को हिलाए।
बाजार और विज्ञापन की अघोषित सी साजिश चलती दिखती है। नरेगा मजदूरों के
मिलने वाली मजदूरी के घोटालों की खबर पर संपादकों की संवेदनाएं मरी हुई
हैं। वे कहते हैं, यह क्या हरदम गरीबी का रोना रोते रहते हैं। क्योंकि
वह मजदूर हमारा उपभोक्ता नहीं है। बिना नाम लिए मैं उल्लेख करूंगा कि
एक अखबार ने लावारिस लाशों के फोटो छापने बंद कर दिए कि इससे क्या फर्क
पड़ता है। संपादकीय बैठकों में यह कहा जाता है कि चूंकि गरीब आदमी तो
हमारा उपभोक्ता है, नहीं लिहाजा उसकी खबर क्यों छापी जाए। तो साब, नारा
लगाना बहुत आसान है और जब सामने पुलिस हो तो भी नारा लगाया जा सकता है,
लेकिन जब यह पता चले कि गोली चल सकती है तो पीछे हट जाने से आप
स्वतंत्रता सेनानी नहीं बनते। प्रॉब्लम हमारी यही है कि हमारे बीच से
तेजी से संवेदनशील पत्रकारों की नई जमात गायब हो रही है। वे चाटुकार
अच्छे हैं, वे कपड़े ब्रांडेड पहनते हैं, वे तेजी से नौकरियां बदलते हैं
क्योंकि इससे उनका वेतन बढता है। तो पत्रकार होने और किसी बैंक में
मैनेजर होने जैसी नौकरियां एक सी हो गई हैं। वे इस बाजार के हाथों में
खेल रहे श्रमिक हो गए हैं। दोष पत्रकारों का नहीं, प्रबंधन भी तो ऐसा ही
चाहते हैं। यह मान लिया गया है कि आपकी सबसे बड़ी योग्यता युवा होना ही
रह गया है। ये ऐसे युवा हैं जो गली कूचों में खुली पत्रकारिता के नाम पर
धंधा करने वाली कॉलेजों से निकलकर आए हैं और उन्हें लगता है कि दुनिया
को वे ही लोग चला रहे हैं। मुझे तो समझ में नहीं आता कि पत्रकारिता की
पढाई का औचित्य क्या है। आप पत्रकारिता क्या है, उसका इतिहास क्या
है, खबरें कैसे लिखी जाती हैं इस तरह की व्याकरण वाली बातें तो पढा सकते
हैं लेकिन एक अच्छा पत्रकार कैसा होता है इसका फार्मूला कोई नहीं होता।
आप किसी स्कूल में पढाकर गणेश शंकर विद्यार्थी, राजेंद्र माथुर या
प्रभाष जोशी पैदा नहीं कर सकते। दुर्भाग्य से पत्रकारिता में यह मान
लिया गया है कि जिसका वेतन ज्यादा है, वही बड़ा और वरिष्ठ पत्रकार है,
जबकि आप जानते हैं आठ महीने में तीन नौकरियां बदलने से भी वेतन बढ सकता
है। चालीस पैंतालीस साल के पार हो गए हैं तो आप किसी काम के लायक नहीं है
और आपकी नौकरी पर खतरा है, यदि आप उन सब हथकंडों को नहीं जानते जो
मैनेजमेंट स्कूल में पढाए जाते हैं कि बॉस गुस्से में हो तो कैसे
व्यवहार करें और बॉस की कार पंक्चर हो गई हो तो आप कैसे अपने नंबर
बढाएं। कभी कभी बहुत ही बुरा लगता है कि किस तरह से मीडिया पत्रकारों से
खिसककर मैनेजरों के हाथ में जा रहा है लेकिन याद रखिए मैनेजर कभी आम
लोगों की नहीं सोचता, वह अपना और अपनी कंपनी का मुनाफा देखता है। हाशिए
के लोग हमारे समय के सबसे दुर्भाग्यशाली लोग हैं, जिनको हमने
नक्सलवादी, चोर उचक्के, फुटपाथी या भिखारी कहकर अपराधी ही मान लिया है
जैसे इस देश की छवि उनके होने से ही खराब है, बाकी अंबानी, टाटा,
मित्तल, तेंदुलकर, अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान आदि ने तो कोई कसर नहीं
छोडी है कि दुनिया में भारत का डंका बुलंद हो। मैंने पिछले डेढ दशक में
पत्रकारिता करते हुए यह भोगा है कि आम आदमी की जो जगह अखबार में थी, उसे
अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, अंबानी बंधु, टाटा, राडिया, मित्तल आदि लोग
घेरकर बैठे हैं, जैसे महानगरों और शहरों में फैलते माफियाओं ने किसानों
को अपनी जमीन से बेदखल कर दिया। और कोई क्रांतिकारी उम्मीद बची नहीं है।
ये लोग और घातक तरीके से हमलावर होंगे। आम लोगों को बेदखल करने के लिए।
अफसोस यही है कि हम पत्रकार भी अब हथियार डाल चुके हैं, क्योंकि हमें डर
है कि आम लोगों को अखबार में घुसाने से हमारे खुद के बेदखल होने का खतरा
है। क्योंकि बाजार सिर्फ अपने उपभोक्ता की परवाह करता है, और वह परवाह
ऐसी है जैसे कसाई अपने बकरे को पालता पोषता है। ममता से नहीं, बल्कि उसकी
गर्दन काटकर मांस खाने के लिए। मैं एक डरी हुई पीढ़ी का पत्रकार हूं। मैं
अपनी गर्दन बचाकर चलता हूं हालांकि मुझे पता है कि उस्तरे धार किए जा
रहे हैं और यह गर्दन कटनी है, फिर भी मैं अपने समय का अपराधी हूं कि मैं
अपनी आंखों से हाशिए के लोगों को बेदखल होते देख रहा हूं।
हिंदी मीडिया का यह एक खराब दौर है। दुआ करता हूं यह इससे जल्दी बाहर
निकले। हां, यह पैसा कमाने का दौर तो है लेकिन जब पूरे देश में भ्रष्ट
तंत्र घर कर गया है। ऐस समय में जब पटवारी से लेकर मंत्री तक पैसा खा रहे
हैं तो जहां हाथ रखो वहीं से खबर मिलती है लेकिन कितनी खबरें छप रही हैं,
आप और हम सब देख रहे हैं। दुर्भाग्य देखिए हिमालय की कंदराओं से योग
सिखाने का भेस पहनकर आया एक बाबा शक्ति का केंद्र बन रहा है और वह देश पर
राज करने के सपने देख रहा है। अगले चुनाव तक कोई एक राजनीतिक पार्टी उस
बाबा का मुखौटा जरूर पहनेगी। और यह विषयांतर कतई नहीं है क्योंकि इसमें
मीडिया भी उतना ही बड़ा अपराधी है।
वैकल्पिक मीडिया खड़ा हो रहा है। सोशल नेटवर्क साइट़स की वजह से, या
ब्लॉग की दुनिया में। वहां मुझे बहुत उम्मीदें दिख रही हैं। हमारे समय
में हम गवाह रहे हैं कि कुछ क्रांतियां खड़ी हुई हैं। मठाधीश बौखलाए हैं
लेकिन मुझे डर है यहां भी पहरे लगेंगे देर सबेर। इसलिए नए रास्तों की
तलाश जारी रहनी चाहिए। लेकिन इससे बड़ी मेरी अपेक्षा यह है कि हमारा
मुख्य धारा का मीडिया अपनी भटकन छोड़कर अपने जमीर से पूछे। क्या उन
पत्रकार मित्रों को शर्म भी नहीं आती जो पच्चीस साल पहले एक पवित्र मिशन
के साथ उतरे थे और आज सिर्फ अपनी टीआरपी महत्वाकांक्षाओं के लिए अपने
चैनलों पर यह दिखा रहे हैं कि किस घर में डायन आती है और कहां सांप ने एक
पूरे गांव को बचा रखा है और कैसे एक कापालिक की हवस आज भी उसे भूत बनाकर
अतृप्त डोला रही है। जिस देश में आधी जनता भूखी सोती है, जिस देश में
संसाधनों पर दस फीसद आबादी का कब्जा है, वहां ऐसी पत्रकारिता के लिए
जनता की अदालत में आपराधिक मुकदमा चलना चाहिए। या इन सब चैनलों को
एंटरटेनमेंट चैनल कर देना चाहिए। लेकिन सरकारें ऐसा नहीं करेंगी क्योंकि
वे खुद नहीं चाहती कि कोई ये सब कार्यक्रम बंद करके उनकी तरफ झांके।
(PUBLISHED IN KATHADESH MEDIA ISSUE IN APRIL 2011)
2 टिप्पणियां:
कुछ बेहद जरूरी और सटीक सवाल उठाए हैं. चलिए किसी में तो यह हौसला बचा है.
बाजार पर ध्यान दिया जायेगा तो भाषा भी बाजारू हो जायेगी।
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