निर्माता राकेश ओमप्रकाश मेहरा और निर्देशक मृगदीप सिंह लांबा की फिल्म "तीन थे भाई" तीन ऎसे भाईयों की कहानी है, जो हमेशा एक दूसरे से नफरत करते हैं और अलग अलग रहते हैं। एक डिक्सी (ओम पुरी) की दुकान है शहर में। दूसरा हैप्पी (दीपक डोबरियाल) डेंटिस्ट है और तीसरा फैंसी (श्रेयस तलपड़े) एक्टर बनना चाहता है। इनके मरहूम दादाजी (योगराज सिंह) ने इनके नाम पहाड़ पर एक बंगले और जमीन की करोड़ों की वसीयत लिखी है लेकिन शर्त यह है कि वे तीन साल तक उस घर में बिना लड़े रहेंगे। फिल्म इसी मोड़ पर शुरू होती है जब चारों तरफ बर्फीला सा तूफान है और तीनों भाई उस बंगले पर पहुंचते हैं। लेकिन उनका लड़ाई झगड़ा खत्म नहीं होता। सबसे छोटा फैंसी एक कुत्ते को भी अपने साथ रखता है और उन्हीं के पास दादाजी की अस्थियां भी हैं जो तीन साल बाद ही प्रॉपर्टी मिलने के बाद ही प्रवाहित की जानी हैं।
कहानी में ये तीनों पात्र एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। कालांतर में पहाड़ पर ही भटकते हुए कुछ अंग्रेज लड़कियां इन्हें मिलती हैं और इनके लिए एक नई मुसीबत खड़ी करती हैं। इस मुसीबत से निपटते ही दूसरी आती है और नाटकीय घटनाक्रम में फिल्म अंत तक पहुंचती है।
फिल्म की सबसे ताकतवर चीज गुलजार के गीत हैं और सबसे बड़ी कमजोरी इसका संपादन। कई दृश्य अनावश्यक लंबे हैं। दूसरी, कमजोरी पटकथा की बाधित करने वाली गति है। कहानी की गति अविश्वसनीय ढंग से आगे बढती है और कुछ गैर जरूरी से दृश्य संपादक ने फिल्म में क्यों रहने दिए समझ नहीं आता संवाद साधारण है और जादुई नहीं लगते। इंटरवल तो फिल्म खिंचती हुई सी चलती है लेकिन इंटरवल के बाद थोड़ी गति पकड़ती है। फिल्म की खूबसूरत लोकेशन्स और बर्फानी वादियां इसकी ताकत है कि आपको थियेटर आपको बर्फानी अहसास होता है। ओमपुरी ने ठीक अभिनय किया है लेकिन उम्र और वजन ने उन्हें शिथिल किया है। तनु वेड्स मनु के बाद दीपक डोबरियाल लगातार सहज और आकर्षक लगे हैं। श्रेयस ने काम चलाऊ काम किया हैं। क्रिकेटर युवराज के पिता योगराज सिंह दादाजी के रोल में इस फिल्म से डेब्यू कर रहे हैं और कहीं कहीं लाउड हैं। यूं तो पूरी फिल्म के पात्र ही जरूरत से ज्यादा लाउड लगते हैं। यदि आप परंपरागत कॉमेडी फिल्मों से ऊबे हुए हैं तो "तीन थे भाई" एक टाइमपास फिल्म है। सिर्फ सब्जेक्ट अलग होने मात्र से वह बहुत ज्यादा जादू पैदा नहीं करती है। संगीत औसत है।
कहानी में ये तीनों पात्र एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। कालांतर में पहाड़ पर ही भटकते हुए कुछ अंग्रेज लड़कियां इन्हें मिलती हैं और इनके लिए एक नई मुसीबत खड़ी करती हैं। इस मुसीबत से निपटते ही दूसरी आती है और नाटकीय घटनाक्रम में फिल्म अंत तक पहुंचती है।
फिल्म की सबसे ताकतवर चीज गुलजार के गीत हैं और सबसे बड़ी कमजोरी इसका संपादन। कई दृश्य अनावश्यक लंबे हैं। दूसरी, कमजोरी पटकथा की बाधित करने वाली गति है। कहानी की गति अविश्वसनीय ढंग से आगे बढती है और कुछ गैर जरूरी से दृश्य संपादक ने फिल्म में क्यों रहने दिए समझ नहीं आता संवाद साधारण है और जादुई नहीं लगते। इंटरवल तो फिल्म खिंचती हुई सी चलती है लेकिन इंटरवल के बाद थोड़ी गति पकड़ती है। फिल्म की खूबसूरत लोकेशन्स और बर्फानी वादियां इसकी ताकत है कि आपको थियेटर आपको बर्फानी अहसास होता है। ओमपुरी ने ठीक अभिनय किया है लेकिन उम्र और वजन ने उन्हें शिथिल किया है। तनु वेड्स मनु के बाद दीपक डोबरियाल लगातार सहज और आकर्षक लगे हैं। श्रेयस ने काम चलाऊ काम किया हैं। क्रिकेटर युवराज के पिता योगराज सिंह दादाजी के रोल में इस फिल्म से डेब्यू कर रहे हैं और कहीं कहीं लाउड हैं। यूं तो पूरी फिल्म के पात्र ही जरूरत से ज्यादा लाउड लगते हैं। यदि आप परंपरागत कॉमेडी फिल्मों से ऊबे हुए हैं तो "तीन थे भाई" एक टाइमपास फिल्म है। सिर्फ सब्जेक्ट अलग होने मात्र से वह बहुत ज्यादा जादू पैदा नहीं करती है। संगीत औसत है।
1 टिप्पणी:
सुन्दर समीक्षा।
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