शनिवार, मार्च 03, 2012

पान सिंह तोमर: यह वंचितों और पीडि़तों की कविता है





पान सिंह तोमर के शुरुआती दृश्य में एक पत्रकार को दिखाया गया है जो बागी (डकैत नहीं, क्योंकि बकौल पान सिंह बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में होते हैं) पान सिंह से बात कर रहा है। खुद कुर्सी पर बैठा पान सिंह उसे नीचे बैठने का इशारा करता है। वह दीवार का सहारा लेकर बैठता है। एक पत्रकार को इस तरह दिखाए जाने के कारण मुझे शायद खीझ होनी चाहिए लेकिन पता नहीं क्यों, बुरा नहीं लगा। कई बार जख्मी जगह को बार बार छूकर देखना भी अच्छा लगता है। पानसिंह और पत्रकार का इंटरव्यू शुरू होता है। परतें खुलनी शुरू होती हैंं। आप सिनेमा में डूबना शुरू होते हैं।

पान सिंह तोमर सेना में भर्ती हुए और एक दिन स्टीपलचेज दौड़ में राष्ट्रीय रिकॉर्डधारी बने। लेकिन जब अपने गांव लौटे तो उनकी जमीन पर चचेरे भाई ने कब्जा कर लिया था। अनुशासित सैनिक होने के नाते पान ङ्क्षसह नियम कायदों से चक्कर लगाते रहे। उस इलाके का गैर जिम्मेदार और गैर-जरूरी सा सारा प्रशासन उन्हें टरकाता रहा। अंतत: पान सिंह बागी बने। अब सब लोग पान सिंह को ढूंढ़ रहे हैं। पान सिंह की यह पीड़ा भी है कि जब देश के लिए मैडल लाए तो कोई नहीं पूछता था लेकिन बागी बने हैं तो सब नाम ले रहे हैं।

दरअसल फिल्म पान सिंह तोमर तीन स्तर पर ताकतवर है। एक तो सच्ची घटना पर आधारित होना उसे बेहद विश्वसनीय बना देता है। दूसरा, वह बहुत खूबसूरती से लिखी गई है, जिसके लिए संजय चौहान और तिग्मांशु धूलिया जितनी तारीफ की जाए कम है। तीसरे, इरफान की मौजूदगी उसे सम्पूर्ण सिनेमाई अनुभव बनाती है, जो हर हाल में देखी जानी चाहिए।

पान सिंह तोमर सच्ची घटनाओं से लेकर बुना गया जिंदगी का एक रूपक है, जिसे देखते हुए आपका मनोरंजन भी होता है, उसके भीतर एक तंज लगातार चलता है, एक महान त्रासदी भी हम समांतर देखते हैं, जो बागियों के अपराध को महिमामंडित करने से ज्यादा उन सारे चेहरों को रेखांकित करती हैं जो इन बागियों को पैदा करते हैं। पान ङ्क्षसह ने तय कर लिया है कि बागी होना है और बेटा हनुमंता फौज की नौकरी में जाने से मना करता है तो वह चिल्लाता है। पूरी फिल्म में इरफान का कोई दूसरा संवाद इतना लाउड नहीं है। यह अपने आप में संकेत है कि किसी भी नई पीढ़ी के लिए बागी होना कोई समाधान नहीं है। समाधान यह भी नहीं है कि वह उस पुलिस वाले इंसपेक्टर को मार दे जिसने उसकी एफआईआर तक दर्ज करने से मना किया था और उसका जीता हुआ मैडल फेंक दिया था। आप उस इंसपेक्टर से इतनी नफरत कर रहे होते हैं और इच्छा होती है कि पर्दे पर उसे मार दिया जाए लेकिन पान सिंह उसे सिर्फ इतना कहते हैं कि वर्दी के सामने झुककर माफी मांग कि तू इसके लायक नहीं है। इसके बाद कच्छे में भागते हुए वह अपनी जान बचाने का जश्न मना सकता है लेकिन असल में वह मरा हुआ ही है। एक मरा हुआ लोथड़ा पर्दे पर भाग रहा है।

पान सिंह का नायकत्व इस तरह के ग्रे शेड वाले सारे नायकों से ऊपर है। वह एक जिम्मेदार पिता, जिम्मेदार भाई, चाचा, एक अनुशासित सिपाही अपनी टोली के लोगों के लिए समर्पित लीडर। उसके भीतर एक खालीपन है। उसके भीतर एक आग है। उस आग को बुझाने के बाहरी जतन करता है। वह गुलाबजामुन में आइस्क्रीम मिलाकर खाने के स्वाद को नहीं भूला है। वह विदेश का हवाला देता है और जब उसे पता चलता है इतने बरसों बाद अब ग्वालियर में भी वैसी ही आइस्क्रीम मिलने लग गई है तो यह संकेत मात्र है कि समय किस तरह बदल गया है। कर्नल के घर चार मिनट में बिना पिघले आइस्क्रीम पहुंचाने वाले पान सिंह की जिंदगी की आइस्क्रीम इस पूरी यात्रा में पिघल गई है लेकिन वह तब भी फिनिश लाइन तक पहुंचना चाहता है। वह जानता है कि इन लोगों से जीतना उसके लिए नामुमकिन है, तो भी वह अपना सफर नहीं छोड़ता। वह अपने पुराने कोच के घर से ड्राइ फ्रूट्स उठाकर अपनी जेबों में भर लेता है और उसे चंबल किनारे इंतजार कर रहे अपने परिवार में बांट देता है। यह वंचितों और पीडि़तों की कविता है। यह उन सब लोगों के पक्ष में फिल्म है, जो न्याय के लिए लड़ते हैं। जिन्हें पता है कि वे जब तक लड़ेंगे नहीं, तब तक सत्ता उन्हें न्याय नहीं देगी।

जिस चचेरे भाई की वजह से वह बागी बना है, जब वही उसके सामने गिड़गिड़ा रहा है और कह रहा है कि पान सिंह तू मेरा भगवान है तो पान सिंह कहता है, क्या करोगे उस जमीन का अब, जो तुमने दबाई थी।

नए फिल्मकारों की जमात में तिगमांशु एक संवदेनशील फिल्मकार हैं। संजय चौहान की बेहतरीन लेखक हैं ही। हम उन्हें आय एम कलाम, साहब, बीवी और गैंगस्टर समेत दूसरी कई महत्त्वपूर्ण फिल्मों से जानते हैं। फिल्म के संवाद और पटकथा इसे बिना चूके देखने के लायक बनाते हैं। इरफान के साथ तिगमांशु की अंडरस्टेंडिंग इस फिल्म को एक ऊंचाई तक ले जाती है।
और हां, इरफान को भी यह फिल्म नायकत्व की उस श्रेणी में ले जाती है, जिसके नाम से भारतीय बॉक्स आफिस पर टिकट बिके। मुमकिन है यह मेरा और मेरे शहर के दर्शकों का जयपुर प्रेम हो लेकिन कैमरा पैन होते हुए पैरों से ऊपर उठकर धीरे धीरे एक ओट से जब इरफान की पहली झलक दिखाता है तो थियेटर में सीटियां बजती है। यह गैर परम्परागत नायक है। इसके अपने दर्शक हैं और पर्दे पर पहली झलक हीरो की आए और दर्शक सीटी बजाए तो समझिए, इस हीरो में बॉक्स ऑफिस वाली बात है। आरती बजाज के संपादन, अभिषेक रे के संगीत और साथी कलाकारों के अभिनय समेत सिनेमा का जरूरी साजो सामान सब है। आप देखेंगे तो आपको अच्छा लगेगा।

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

निश्चय ही देखने योग्य फिल्म है..

Arvind Mishra ने कहा…

बिलकुल मस्त फिल्म है और आप इस फिल्म की संवेदना से जुड़े हैं !