-रामकुमार सिंह-
तीन दिन तक जवाहर कला केंद्र में चले राजस्थानी सिनेमा के जलसे में सबसे अच्छी बात यह थी कि जितनी फिल्में दिखाई गई वे लगभग हाउसफुल रहीं। मुंबई से आए लगभग लुप्त प्राय: राजस्थानी फिल्म इंडस्ट्री के यातनाम कलाकार और झंडाबरदार भी आए लेकिन क्या यह स मेलन करने मात्र से राजस्थानी सिनेमा के पनपने के आसार बनते हैं। मैं क्रूर होकर कहूं तो सच यह है कि ऐसा नहीं होगा। दरअसल पूरा फिल्म उद्योग हर ह ते एक नई करवट लेता है। एक शुक्रवार का बॉक्स ऑफिस का किंग अगले ह ते अपदस्थ होता है और उसे नया राजा मिल जाता है। कई बार एक ही राजा बार बार राज करता है, जैसे पिछले डेढ साल से सलमान खान कर रहे हैं। तो जिस राजस्थान में पिछले दो दशक में कोई महत्त्वपूर्ण फिल्म राजस्थानी भाषा में नहीं बनी तो तो अचानक यह चमत्कार कैसे हो सकता है?
मुझे यह राग कुछ जिस तरह समझ में आ रहा है, उसका उल्लेख मैं करना चाहूंगा। दरअसल राज्य सरकार ने जब यू सर्टिफिकेट वाली राजस्थानी फिल्मों को पांच लाख रुपए तक के अनुदान की घोषणा की तो यह ठहरे हुए पानी में कंकर था। कई पुराने खापट निर्माता कलाकारों और संघर्षरत लोगों के लिए यह एक अवसर की तरह लगा कि फिल्म बना दो, पांच लाख रुपए पक्के हैं।
जबकि यह अनुदान सिनेमा के लिए मजाक है। जिस दौर में गांव में टेलीविजन को व्यापक विस्तार हो चुका है, जहां गांव के लोगों के पास अपना सिनेमा देखने का विकल्प है कि हिंदी से लेकर हॉलीवुड और दुनिया के दूसरे देशों को सिनेमा देख सकती है वहां पांच लाख रुपए के अनुदान के लालच में बनी फिल्म वह क्यों देखेगा? और जो लोग वयस्क हैं, एडल्ट फिल्में देखना चाहते हैं वे छूट के दायरे में क्यों नहीं हैं? समय के साथ एडल्ट सिनेमा की परि ााषा भी बदल गई है। अब एडल्ट फिल्म का मतलब छिछौरी फिल्में नहीं बल्कि उसमें वल्र्ड क्लास सिनेमा भी शामिल है। जाहिर है फिल्म की गुणवत्ता देखकर अनुदान देने का मापदंड वहां भी लागू होता है।
दूसरी बात, सरकार ने जब मनोरंजन कर में छूट दी तो लोगों को लगा कि सरकार का मन है कि सिनेमा को प्रोत्साहन दिया जाए। दरअसल यह सरकार ने अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारी। सिनेमाघरों की दरों में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई। सबने चुपके से दरें बढाई और या कुछ ईनामी योजनाएं चलाई कि ह ते में आप एक दिन सस्ती दरों पर फिल्म देखें बाकी हमें बढ़ी दरों पर फिल्म चलाने दें। आपको मालूम ही होगा कि सुबह के शो में जो टिकट आप पिचहतर रुपए में खरीदते हैं, शाम या रात होते होते वह मल्टीप्लेक्स में डेढ़ सौ रुपए में बिकता है। वह भी तब, जब उसमें मनोरंजन कर शामिल नहीं है। संयोग से इस साल एक के बाद एक हिट फिल्में आई हैं और करोड़ों रुपए का राजस्व सरकार ने गंवाया है (या सिनेमाघरों और निर्माताओं ने कमाया है)। सरकार सचमुच अपने भाषायी सिनेमा को प्रोत्साहन देना चाहती थी तो करोड़ों रुपए के मनोरंजन कर को लेकर एक स्लैब बना सकती थी कि सिर्फ राजस्थानी फिल्मों को मनोरंजन कर में छूट दे। हिंदी या हॉलीवुड सिनेमा से कमाए हुए मनोरंजन कर को हर किस्म की फिल्मों को मनोरंजन कर छोड़ देने के बाद तो भाषायी सिनेमा की चुनौती और बढ गई है। मल्टीप्लैक्स और सिनेमाघर मालिक क्षेत्रीय फिल्मकारों को झांकने तक नहीं देंगे।
मशहूर फिल्मकार ऋत्विक घटक कहा करते थे कि फिल्म बनाना हर आदमी के लिए आसान होना चाहिए। जैसे किसी का मन कहानी या कविता लिखने का होता है, नाटक करने का होता है ठीक उतना ही आसान होना चाहिए क्योंकि यह अंतत: अभिव्यक्ति ही तो है। उस जमाने में फिल्म बनाने की लागत बहुत आती थी। अब डिजीटल कैमरा आने के बाद यह बहुत आसान हो गया है। आपके स्टिल कैमरा की साइज के एक कैमरे से आप फीचर फिल्म बना सकते हैं। हालांकि यह भी इतना आसान और सस्ता भी नहीं है कि हर कोई खड़ा हो जाए और कहे कि अब तक वह पेट्रेाल पंप चलाता था और अब मन हो गया है तो फिल्म बना ले। लेकिन सृजनशील बहुत लोगों के लिए सिनेमा बनाने का रास्त सुगम हुआ है लेकिन देखते ही देखते उसे रिलीज करने का दूसरा रास्ता जटिल हो गया है। जबसे सिनेमा से थियेटर के अलावा सैटेलाइट, रिंग टोन और मल्टीमीडिया से जुड़े दूसरे अन्य लाभ कमाने के अवसर पैदा हुए हैं, तब से बड़ी पूंजी वाले कारपॉरेट ने इस पूरे उद्योग को एक कल्पनातीत ऊंचाई दे दी। फिल्म को बना लेने की आसानी और उसे रिलीज करने के तंत्र के बीच गहरा अंतर है। फिल्मों के निर्माण की लागत से कहीं ज्यादा टेलीविजन और दूसरे माध्यमों से उसे प्रचारित करने का बजट हो गया है। जाहिर है, सिनेमाई दुनिया उतनी ही जटिल और दुर्लभ आज भी बनी है, जैसी ऋत्विक घटक कभी नहीं चाहते थे।
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