फिल्म समीक्षा: नो वन किल्ड जेसिका
-रामकुमार सिंह
निर्माता रॉनी स्क्रूवाला की फिल्म 'नो वन किल्ड जेसिकाÓ एक सुखद सिनेमाई अनुभव है, जो एक सच्ची कहानी में छोटे मोटे सिनेमाई आजादी वाले झूठ मिलाकर परत दर परत पर्दे पर साकार होता है। निर्देशक राजकुमार गुप्ता इससे पहले आमिर बना चुके हैं और उनकी इस फिल्म ने साबित किया है वे एक संवेदनाओं वाले जिम्मेदार फिल्मकार हैं। उनके दौर के नए फिल्मकार लिजलिजी प्रेमकहानियों से सराबोर सतही फिल्में बना रहे हैं वहां उनकी इस फिल्म में दोनों ही नायिकाओं के पास बॉयफ्रेंड बनाने तक की फुरसत नहीं है।
कहानी 1999 में दिल्ली में मॉडल जेसिका लाल की हत्या और उससे जुड़े लंबे मुकदमे की है। जिसमें गवाह मुकर गए थे और सत्ता के गलियारों में ताकतवर अभियुक्त रिहा हो गए थे। इसके बाद मीडिया ट्रायल की वजह से हाईकोर्ट ने केस पुन: खोला और सभी दोषियों को सजा हुई।
जेसिका की कहानी सब लोग जानते हैं लेकिन फिल्म के निर्देशक ने उसे पूरी संवेदना के साथ फिल्माया है। जो आभिजात्य मानसिकता 'चलता हैÓ पर सवाल उठाती है। जिस पार्टी में तीन सौ लोगों के सामने हत्या हुई वहां एक भी गवाह सामने आकर कहने को राजी नहीं कि जेसिका को किसने मारा था।
यह सबरीना लाल के न्याय के लिए किए गए संघर्ष की कहानी है कि एक लोकतांत्रिक देश में वह बाईस से अठाईस और तीस साल की सिर्फ अदालतों, गवाहों और थानों में चक्कर काटते हुए हो गई। एक हत्या कर दी गई लड़की के सपनों की कहानी है जिसके बारे में अकसर हमारी मानसिकता ऐसी ही होती है कि मॉडलिंग की इच्छुक या पार्टियों में जाने वाली सारी लड़कियां ऐसे ही होती हैं, जबकि उसे सिर्फ इसलिए मार दिया गया कि उसने एक नेता के शराबी बेटे को बार बंद होने के बाद ड्रिंक देने से मना कर दिया। उस सिरफिरे के पास पिस्तौल थी और उसको गुस्सा आ गया था।
यह उस चर्बीवाले सत्ता संपन्न बाप के गुरूर की कहानी है जो अपने चमचों और धन के बल पर देश के सबसे बड़े क्रिमिनल लॉयर और सारे गवाहों को खरीद सकता है। फोरेसिंक लेब में सबूत बदलवा सकता है। यह सिस्टम की खामी और जनता की ताकत की कहानी है। उसी कहानी में कहीं यह तंज छुपा है कि हर कोई सबरीना की तरह नहीं लड़ सकता। हर पीडि़त के साथ तहलका या एनडीटीवी खड़ा नहीं हो सकता है। केस की जांच कर रहा अफसर जब कहता है कि मनीष पर हाथ ना उठाने भर के लिए उसने सत्तर लाख रुपए लिए हैं तो आप सन्न रह सकते हैं। वह अफसर अपराधबोध से ग्रस्त पूरे पुलिस तंत्र का प्रतिनिधि है जो इन्हीं कानूनी खामियों और सत्ताधारियों की ताकत में अपनी कमजोरियों की वैधता खोजने की कोशिश करता है। फिल्म कहीं कहीं ढीली और एकरस सी लगती है लेकिन संभलती भी उतनी ही जल्दी है। यह दिखने में मसाला कहानी जैसी रंग बिरंगी ऊन है, लेकिन राजकुमार गुप्ता ने सिनेमाई स्वेटर बुना है। सच्चाई ही इसकी ताकत है।
रानी मुखर्जी के चरित्र को और गहरा किया जा सकता था लेकिन बेशक यह रानी की ठीक प्रस्तुतियों में एक है। सबसे ज्यादा नंबर एक बार फिर विद्या बालन को जाते हैं,एक गंभीर और बेहतरीन अभिनय के लिए।
तकनीकी रूप से फिल्म उम्दा है। संपादन चुस्त है और अनय गोस्वामी की सिनेमाटोग्राफी फिल्म की गति के साथ चलती है। अमित त्रिवेदी नए रहमान हैं। गानों को उन्होंने जादुई धुनें दी हैं।
rating- 3.5/5
2 टिप्पणियां:
देखने योग्य लगती है यह फिल्म।
... dekhanaa hi padegaa !!
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