सिनेमा में यह देहात की मजबूत वापसी है। फिल्म का देशकाल मौजूदा यूपी का नेपाल का सीमावर्ती इलाका है। फिल्म उस गांव को पूरी शिद्दत के साथ दिखाती है। सीमावर्ती गांवों में हो रहे हथियारों के कारोबार और सत्ता की लिप्सा भी दिखाती है लेकिन बिना किसी उपदेश के यह एक थ्रिलर कॉमेडी फिल्म है जिसके चुटीले और बेहतरीन संवाद हंसाते हैं, इसी लड़ाई झगड़े के बीच रोमांस की एक लहर चलती है, जिसमें तीनों पात्र डूबे हुए हैं। फिल्म विशाल भारद्वाज कमीने की ही तरह छाए हैं। वे प्रोड्यूसर, संगीतकार, पटकथा लेखक और संवाद लेखक के रूप में जुड़े हुए हैं लेकिन अभिषेक चौबे के निर्देशन की तारीफ लाजिमी है। अभिनय में नसीरूद्दीन शाह, अरशद वारसी छाए हैं। विद्या एक बोल्ड लेडी के रूप में बेहतरीन अभिनय भी किया है और बेइंतहा खूबसूरत भी लगी है। फिल्म गुरू में माधवन के साथ चुंबन दृश्य के बाद यहां अरशद वारसी के साथ उससे भी बोल्ड दृश्य है। विद्या के पति की भृमिका में आदिल हुसैन और नंदू के रूप में मास्टर आलोक भी याद रहते हैं। गुलजार साहब दिल तो बच्चा है जी के साथ छाए हुए हैं। विशाल का बेहतरीन संगीत है।
शुक्रवार, जनवरी 29, 2010
इश्किया: खुरदरे रोमांस का सिनेमा
सिनेमा में यह देहात की मजबूत वापसी है। फिल्म का देशकाल मौजूदा यूपी का नेपाल का सीमावर्ती इलाका है। फिल्म उस गांव को पूरी शिद्दत के साथ दिखाती है। सीमावर्ती गांवों में हो रहे हथियारों के कारोबार और सत्ता की लिप्सा भी दिखाती है लेकिन बिना किसी उपदेश के यह एक थ्रिलर कॉमेडी फिल्म है जिसके चुटीले और बेहतरीन संवाद हंसाते हैं, इसी लड़ाई झगड़े के बीच रोमांस की एक लहर चलती है, जिसमें तीनों पात्र डूबे हुए हैं। फिल्म विशाल भारद्वाज कमीने की ही तरह छाए हैं। वे प्रोड्यूसर, संगीतकार, पटकथा लेखक और संवाद लेखक के रूप में जुड़े हुए हैं लेकिन अभिषेक चौबे के निर्देशन की तारीफ लाजिमी है। अभिनय में नसीरूद्दीन शाह, अरशद वारसी छाए हैं। विद्या एक बोल्ड लेडी के रूप में बेहतरीन अभिनय भी किया है और बेइंतहा खूबसूरत भी लगी है। फिल्म गुरू में माधवन के साथ चुंबन दृश्य के बाद यहां अरशद वारसी के साथ उससे भी बोल्ड दृश्य है। विद्या के पति की भृमिका में आदिल हुसैन और नंदू के रूप में मास्टर आलोक भी याद रहते हैं। गुलजार साहब दिल तो बच्चा है जी के साथ छाए हुए हैं। विशाल का बेहतरीन संगीत है।
रण: कांच के जैसे साफ उसूल
शुक्रवार, जनवरी 22, 2010
'वीर: फॉर्मूलों का बड़ा हादसा
दरअसल इस प्रेम कहानी में यह बहुत ही नाटकीय लगता है कि जंगल में लूटपाट करने वाला पिंडारी रेल में एक राजकुमारी को देखता है। वही अचानक लंदन पढऩे भी चला जाता है, जिसे लॉर्ड मैकाले की नई शिक्षा नीति की मेहरबानी बताया गया है। अगले ही क्षण वह लंदन में है, लंदन में उतरते ही उसे वही राजकुमारी मिल गई जिससे उसको प्यार हुआ था। काश, दुनिया की हर कहानी इतनी ही खूबसूरत होती जितनी इस फिल्म की कहानी बेतरतीब उड़ती तमन्ना।
फिल्म खुलती है तो एक भव्यता लिए हुए हैं। घोड़ों की रोमांचक कर देने वाली दौड़, पिंडारियों की दहाड़ अच्छी लगती है लेकिन यह सब टुकड़ों में है। फिल्म को फायदा इसी बात का है कि इसमें सलमान खान हैं। वरना जरीन खान की सिर्फ शक्ल ही कैटरीना से मिलती है, उसके चेहरे पर तो भाव पूरी फिल्म में एक से ही हैं। वीर की थोड़ी बहुत इज्जत भव्यता ने भी बचाई है। गोपाल शाह की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है। मोंटी का बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है, टीनू वर्मा के एक्शन कुछ नए हैं और कुछ पुराने जमाने की यादें ताजा कराते हैं। यानी फिल्म में कुछ भी इतना खराब नहीं है जितनी खराब कहानी है। गीत ठीक ठाक है और वे उतने लोकप्रिय नहीं हो पाए जो कि गुलजार के सामान्य गीत भी हो जाते हैं। संगीत भी औसत ही है। हां, सिंगल स्क्रीन सिनेमा में फिल्म को शायद ठीक कलेक्शन मिलें।
सोमवार, जनवरी 18, 2010
रेत में, रेल का सफर
मैंने सुना कि एक टिकट जांचने वाला भी ट्रेन के साथ चलता है। बस के कंडक्टर की तरह उससे टिकट लेकर आप रेल का सफर कर सकते हैं। खूब देखने की कोशिश की लेकिन वह दिखाई नहीं दिया। ज्यादातर यात्री मेरी ही तरह इसी उम्मीद में यात्रा पूरी कर गए कि
टिकटवाला दिखे तो टिकट खरीदें। बहुत से ऎसे भी थे जो दुआ कर रहे थे कि वो दिखे ही
नहीं, ताकि टिकट खरीदना ही ना पड़े।
चूरू जिले में सरदारशहर में रेलवे पटरी का आखिरी छोर है। यह रतनगढ़ से जुड़ा है। चूरू-रतनगढ़-जोधपुर मार्ग पर ब्रॉडगेज का काम चल रहा है। लिहाजा इन दिनों एक टे्रन सरदारशहर और रतनगढ़ के बीच ही फंसी है। यानी यह रेल भारतीय रेल के विशाल नेटवर्क के एकदम कटी हुई है। एक तरफ रतनगढ़, एक तरफ सरदारशहर। पिछले कई महीनों से एक रेल और तीन इंजन उस पटरी पर ही बंद हैं। अगले कई महीने वे ऎसे ही रहेंगे। चार डिब्बों की वाली यह रेल दिन में तीन बार रतनगढ़ से सरदारशहर जाती है और वहां से वापस आती है। तीन इंजन बारी बारी रेल को लाते, ले जाते हैं। रात को पूरी रेल रतनगढ़ रेलवे स्टेशन पर अकेले रहती है। रतनगढ़ रेलवे स्टेशन के सामने एक मित्र के घर में तीन दिन तक रहा। इसी दौरान सरदारशहर की यात्रा भी की। खूबसूरत मरूस्थलीय लैंडस्कैप जादुई लगे। डीजल के इंजन से छुक-छुक की आवाज तो नहीं आती, लेकिन डिब्ब्ाों के पहियों से आने वाली "घड़मच्च, घड़मच्च" आवाज वैसी ही है। मार्ग में ग्रामीण स्टेशनों से लोग चढ़ते उतरते रहते हैं।
मैंने सुना कि एक टिकट जांचने वाला भी ट्रेन के साथ चलता है। बस के कंडक्टर की तरह उससे टिकट लेकर आप रेल का सफर कर सकते हैं। खूब देखने की कोशिश की, लेकिन वह दिखाई नहीं दिया। ज्यादातर यात्री मेरी ही तरह इसी उम्मीद में यात्रा पूरी कर गए कि टिकटवाला दिखे तो टिकट खरीदें। बहुत से ऎसे भी थे जो दुआ कर रहे थे कि वो दिखे ही नहीं, ताकि टिकट खरीदना ही ना पड़े। करीब पैंतीस किलोमीटर लंबी इस पटरी पर सिर्फ एक ही रेल है। उस रेल में आप इस भरोसे के साथ बैठ सकते हैं कि वह सामने आने वाली किसी रेल से टकराएगी नहीं, ना ही पीछे से आ रही कोई रेल उसे टक्कर मार सकती है। कम टिकटों की बिक्री की वजह से हो रहे घाटे के कारण रेलवे ने यह गाड़ी बंद कर दी थी और एक डिब्बे वाली रेल बस चलाई थी। लोगों ने धरना दिया, आंदोलन किया तो इस रेल को फिर से शुरू किया गया।
रेल बचपन से आकर्षित करती रही है। ननिहाल के पास से गुजरती रेलवे लाइन पर हम अक्सर खेलते रहे हैं। दस पैसे के सिक्के को रेल आने से ठीक पहले पटरी पर रख दिया करते थे ताकि पहियों के भारी भरकम बोझ से वह फैल जाए। अक्सर थरथराती पटरियों पर वह पहियों के नीचे आने से पहले ही लुढ़क जाता। लेई, गोंद, फेविकोल चुराकर हम उसे पटरी से चिपकाए रखने का जतन करते थे। हमारी पॉकेटमनी के कई दस पैसे रेल से कुचलकर हादसे के शिकार हुए। मेरी पहली रेल यात्रा के समय मैं छह साल का था और मेरे कान में पहना सोने का "बाला" पड़ोस में बैठी महिला की "लुगड़ी" में उलझ गया था। मेरा कान खून से रंग गया था। मैंने दो तीन मुक्के उस महिला को जमा दिए थे। मेरी इस हरकत पर मां ने मुझे डांटा था। आज भी रेल की यात्रा के दौरान वो दर्द याद आता है। रतनगढ़ से सरदारशहर वाली रेल एक दिन तो खूबसूरत लगती है लेकिन फिर उतनी ही भयावह। एक ऎसा सफर जिसमें सब कुछ तय हो, फेरे, स्टेशन, डिब्बे, लोग, ड्राइवर, टीटीई, गार्ड, थमना, चलना तो वह उबाऊ हो जाता है। क्या हम इतना एकाकी जीवन जीते हुए खुश रह सकते हैं? मेरी उस रेल से सहानुभूति है कि जल्दी से ब्रॉडगेज का काम पूरा हो और दो स्टेशनों के बीच फंस चुकी उस रेल और उसके तीन इंजनों को मुक्ति मिले।
एक पीढ़ी को बदलते हुए
जयपुर के क्रिस्टल पाम मॉल में सबसे महंगे मल्टीप्लेक्स आइनॉक्स में लगभग हर शुक्रवार मैं फिल्म का पहला शो देखता हूं। मुझे सुखद आश्चर्य होता है कि वहां सबसे उम्रदराज दर्शक मैं ही होता हूं। वहां लड़के-लड़कियां समूह में होते हैं। हर समूह का खर्च लगभग दो हजार के आसपास हो जाता है। वे टिकट के अलावा कोल्ड ड्रिंक्स, पॉपकॉर्न आदि पर उतना ही खर्च कर देते हैं, बिना किसी हिचक के। उनके अपने पीयर ग्रुप्स के साथ सपनीली दुनिया के कुछ खूबसूरत ख्वाब भी। अंदाजा करता हूं कि इनमें कोई तीस फीसदी युवक-युवतियां अपने घरवालों को बताकर आते हैं कि वे अपने फ्रेंड्स के साथ फिल्म देखने जा रहे हैं। जब भी टीवी कैमरे पर फिल्म के बारे में दर्शकों की राय लेने की बारी आती है तो वे कैमरे के सामने आने से बचते हैं। डर यही होता है कि शाम को सिटी न्यूज बुलेटिन में मम्मी पापा उनकी शक्ल न देखलें।
इसके बावजूद वे अपने दोस्तों के समूह में सर्वाघिक खुश और आत्मविश्वास से लबरेज नजर आते हैं। लेकिन आने वाले वक्त में वे अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने में अपराधबोध का बोझा उठाकर नहीं जाएंगे। मेरे यकीन का आधार यह है कि तीस से चालीस की उम्र के मेरे ज्यादातर दोस्त इस पीढ़ी को देखकर यह अफसोस जाहिर करते हैं कि वे इस पीढ़ी से एक दशक बड़े हैं। उनमें ज्यादातर अपने बच्चों की परवरिश खुले दिमाग से कर रहे हैं।
डेली न्यूज़ के हमलोग में १७ जनवरी को प्रकाशित कॉलम तमाशा मेरे आगे