यह एक अद्भुत अनुभव है। 'मुन्नाभाई एमबीबीएसÓ और 'लगे रहो मुन्नाभाईÓ की कामयाबी से विचलित हुए बिना 'थ्री इडियट्सÓ जैसी और भी खूबसूरत और सार्थक फिल्म बनाकर राजकुमार हिरानी ने संकेत दिया है कि दिल और दिमाग के समन्वय वाले सिनेमा का यह दौर थमेगा नहीं। डेविड धवन को पछाडऩे वाले प्रियदर्शन अपनी छिछोरी कॉमेडी 'दे दना दनÓ की कामयाबी की खुमारी से निकलकर आतंकित होंगे कि सामने राजकुमार हिरानी खड़े हैं। हिरानी हंसाते हैं, रुलाते हैं और चुपके से आपकी वो नस दबा देते हैं, जहां अचानक आपको अहसास होता है कि आप गाल को सहला रहे हैं। हिरानी ने वो चांटा सिस्टम के गाल पर मारा। दर्द हमें हो रहा है क्योंकि हम सब उसी सिस्टम का हिस्सा हैं। सबसे ज्यादा युवाओं वाले इस देश में युवा अपने पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपनी आत्मा का गला घोंटते हैं। यह कहानी दिल्ली, पुणे या बंगलौर, मुंबई से होते हुए जयपुर को भी उतनी ही शिद्दत से छूती है, जहां आए दिन हम लोग अखबार में इंजीनियरिंग छात्रों की आत्महत्या की खबरें पढ़ते हैं।
कहानी मीडिया में इतनी प्रचारित हो ही चुकी है लेकिन फिर भी संदर्भ के लिए जरूरी है। यह इंजीनियरिंग पढ़ रहे तीन ऐसे दोस्तों की कहानी है जो चाहते हैं कि जिंदगी में जो करना है अपने मन का करना है, लेकिन भारतीय युवा के लिए यह ख्वाब ही खतनाक है, जहां उस पर परिवार, सोशल स्टेटस और जिम्मेदारियों जैसी गैर जरूरी चीजों का इतना बोझ लदा होता है कि वह गधा बन जाता है। रट्टू तोता बन जाता है। रैंचो, रस्तोगी और फरहान ऐसा नहीं करते हैं। उनके सामने अपनी मुश्किलें हैं, अपने द्वन्द्व हैं लेकिन वे आपको बोझिल नहीं करते। मैसेज नहीं देते अपनी बहती हुई मस्ती में कह जाते हैं कि अब भी वक्त है। जैसा कि निदा फाजली कहते हैं, 'धूप में निकलो, बारिश में नहाकर देखो, जिंदगी क्या है किताबें हटाकर देखो।Ó
फिल्म सहज भाव से यह बात कह जाती है कि हमारी शिक्षा प्रणाली की चूहा दौड़ कितनी नाटकीय और आधारहीन है। पूरी ग्रेडिंग प्रणाली किस तरह मनुष्य को मनुष्य होने के हक से ही वंचित कर देती है। लेकिन यह सब बताने के लिए हिरानी किसी संत की तरह प्रवचन नहीं देते। बात कहने की उनकी शब्दावली है। यहां मिलीमीटर, वायरस जैसे नाम उनके पात्रों के हैं। उनका हर पात्र आपको याद रहता है। वे सार्वजनिक मूत्र विसर्जन करते हैं, खुले में नहाते हैं और इतनी शरारत करते हैं कि 'चमत्कारीÓ आदमी को 'बलात्कारीÓ और 'धनÓ देने वाले को 'स्तनÓ देने वाला बना देते हैं।निस्संदेह विधु विनोद चौपड़ा के लिए गर्व की बात है कि उनके साथ राजकुमार हिरानी हैं। फिल्म के हर दृश्य पर कितने बेहतर ढंग से सोचा जा सकता है, यह हिरानी दिखाते हैं। लोगों को हंसाने के लिए छिछोरे चुटकुलों की जरूरत नहीं होती, रुलाने के लिए पर्दे पर लाशें गिराने की जरूरत नहीं होती यह भी हिरानी बताते हैं।
आमिर, माधवन और शरमन जोशी ने उम्दा ढंग से काम किया है। आमिर अपनी उम्र से छोटे दिखे ही हैं। करीना ठीक है। वीरु सहस्रबुद्धे की भूमिका में एक बार फिर बोमन इरानी ने कमाल किया है। मुन्नाभाई के डा. अस्थाना के मुताबिक लेकिन इस वायरस की बात ही कुछ और है। यह कहानी मुन्नाभाई के मेडिकल रूप से अलग इंजीनियरिंग रूप की है लेकिन बात बहुत गहरी कहती है। स्वानंद किरकिरे के गीत पहले से ही चर्चित हैं और शांतनु मोइत्रा का संगीत भी सहज और जादुई, जो किसी की नकल सा प्रतीत नहीं होता। लिहाजा, आपकी कसम साल में एक ही फिल्म देखने की है तो दिसंबर बीत रहा है, 'थ्री इडियटÓ जरूर देखिए और कहिए ऑल इज वेल।
कहानी मीडिया में इतनी प्रचारित हो ही चुकी है लेकिन फिर भी संदर्भ के लिए जरूरी है। यह इंजीनियरिंग पढ़ रहे तीन ऐसे दोस्तों की कहानी है जो चाहते हैं कि जिंदगी में जो करना है अपने मन का करना है, लेकिन भारतीय युवा के लिए यह ख्वाब ही खतनाक है, जहां उस पर परिवार, सोशल स्टेटस और जिम्मेदारियों जैसी गैर जरूरी चीजों का इतना बोझ लदा होता है कि वह गधा बन जाता है। रट्टू तोता बन जाता है। रैंचो, रस्तोगी और फरहान ऐसा नहीं करते हैं। उनके सामने अपनी मुश्किलें हैं, अपने द्वन्द्व हैं लेकिन वे आपको बोझिल नहीं करते। मैसेज नहीं देते अपनी बहती हुई मस्ती में कह जाते हैं कि अब भी वक्त है। जैसा कि निदा फाजली कहते हैं, 'धूप में निकलो, बारिश में नहाकर देखो, जिंदगी क्या है किताबें हटाकर देखो।Ó
फिल्म सहज भाव से यह बात कह जाती है कि हमारी शिक्षा प्रणाली की चूहा दौड़ कितनी नाटकीय और आधारहीन है। पूरी ग्रेडिंग प्रणाली किस तरह मनुष्य को मनुष्य होने के हक से ही वंचित कर देती है। लेकिन यह सब बताने के लिए हिरानी किसी संत की तरह प्रवचन नहीं देते। बात कहने की उनकी शब्दावली है। यहां मिलीमीटर, वायरस जैसे नाम उनके पात्रों के हैं। उनका हर पात्र आपको याद रहता है। वे सार्वजनिक मूत्र विसर्जन करते हैं, खुले में नहाते हैं और इतनी शरारत करते हैं कि 'चमत्कारीÓ आदमी को 'बलात्कारीÓ और 'धनÓ देने वाले को 'स्तनÓ देने वाला बना देते हैं।निस्संदेह विधु विनोद चौपड़ा के लिए गर्व की बात है कि उनके साथ राजकुमार हिरानी हैं। फिल्म के हर दृश्य पर कितने बेहतर ढंग से सोचा जा सकता है, यह हिरानी दिखाते हैं। लोगों को हंसाने के लिए छिछोरे चुटकुलों की जरूरत नहीं होती, रुलाने के लिए पर्दे पर लाशें गिराने की जरूरत नहीं होती यह भी हिरानी बताते हैं।
आमिर, माधवन और शरमन जोशी ने उम्दा ढंग से काम किया है। आमिर अपनी उम्र से छोटे दिखे ही हैं। करीना ठीक है। वीरु सहस्रबुद्धे की भूमिका में एक बार फिर बोमन इरानी ने कमाल किया है। मुन्नाभाई के डा. अस्थाना के मुताबिक लेकिन इस वायरस की बात ही कुछ और है। यह कहानी मुन्नाभाई के मेडिकल रूप से अलग इंजीनियरिंग रूप की है लेकिन बात बहुत गहरी कहती है। स्वानंद किरकिरे के गीत पहले से ही चर्चित हैं और शांतनु मोइत्रा का संगीत भी सहज और जादुई, जो किसी की नकल सा प्रतीत नहीं होता। लिहाजा, आपकी कसम साल में एक ही फिल्म देखने की है तो दिसंबर बीत रहा है, 'थ्री इडियटÓ जरूर देखिए और कहिए ऑल इज वेल।
3 टिप्पणियां:
इतनी बढ़िया समीक्षा पढने के बाद कोई अनवेल(unwell) ही फिल्म देखने ना जाये...हम तो वेळ(well) हैं सो जरूर जायेंगे...
नीरज
हमारी शिक्षा प्रणाली तब तक ऐसी ही रहेगी जब तक कि राजनीतिक प्रणाली ऐसी है. बहरहाल, समीक्षा आपने ऐसी ही की है.
लग रहा है कि फ़िल्म अच्छी है। देखनी ही पड़ेगी अब तो।
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