मेरी गाड़ी लाल बत्ती पर रूकी। कुछ बच्चे लाचार-सा चेहरा लिए भीख मांगने आते हैं। कुछ के हाथ में कपड़ा होता है। कार का शीशा साफ करते हैं। आजकल ऎसा भी होता है कि दो लड़के छोटी ढोलक बजाते हैं और एक लड़की लोहे की रिंग से अलग-अलग मुद्राएं बनाते हुए निकल जाती है।विस्मयकारी लचीलापन। अगले पल मेरा मन वितृष्णा से भर जाता है। अंगुलियां कार के डैश बोर्ड में कुछ सिक्के टटोल रही होती हैं, जो मेरे बच्चों के चॉकलेट, बिस्किट खरीदे जाने के बाद बचे रहते हैं। वे सिक्के यूं ही लापरवाही से कार में पड़े होते हैं, इस यकीन के साथ कि इन सिक्कों से अब स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं खरीदा जा सकता। वे ही सिक्के उन मैले कुचले, निरीह और अनाथ दिखने वाले बच्चों का पेट भरते हैं। कभी-कभी वे अखबार बेचते हैं इस आग्रह के साथ कि आप खरीद लेंगे, तो उसे खाना मिल जाएगा। महाशक्ति भारत के इस चेहरे से मैं अंदर तक हिल जाता हूं। मुझे अफसोस है कि मेरी कार में पड़े चंद सिक्के उन लाखों फुटपाथी बच्चों की भूख नहीं मिटा सकते। क्या आपको भी यह अफसोस है? हां, तो दिल से बुरा कहिए सरकारी नीति-नियंताओं को, इन बच्चों का दिखावटी भला सोचने वाले गैर जिम्मेदार समाजसेवी संस्थाओं को, जो बच्चों का पेट भरने के नाम पर करोड़ों डकार गए हैं...और अपने आपको भी कि आज भी उनका पेट खाली है। हम सब उसी "सिस्टम" में शामिल हैं और उसका पोषण कर रहे हैं।
जेबकतरे भी मुस्कराते
swine फ्लू से आंशिक बचाव के लिए बेटी के स्कूल वालों ने साधारण मास्क पहनकर आने को कहा था। पहली बार मैं मेडिकल स्टोर पर गया, तो उसने चार रूपए एक मास्क के लिए। दूसरी बार गया तो पांच रूपए। तीसरी बार एक दूसरे मेडिकल स्टोर पर गया, तो उसने दस रूपए मांगे। वही मास्क था। मैंने विरोध किया तो उसने देने से मना कर दिया। मुझे लेना ही पड़ा। दो महीने में चौथी बार खरीदने पहुंचा, तो भी दस रूपए लिए। मैंने कहा, "भाई, ये तो पांच वाला ही है?" उसने मुस्कराते हुए कहा, "सर, स्वाइन फ्लू की वजह से कीमतें बढ़ गई हैं।" मैंने मुस्कुराता हुआ जेबकतरा पहली बार देखा है।
published in daily news jaipur on 27 december 2009
1 टिप्पणी:
muskurata hua jebkatra.gajab!
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