रविवार, दिसंबर 27, 2009

गुजरते साल के अंतिम दिनों में

लेखक गुरूचरण दास की नई किताब "द डिफिकल्टी ऑव बीइंग गुड" पर चर्चा थी। धर्म का सूक्ष्म चेहरा क्या है? पांडव तो अच्छे थे, लेकिन उन्हें जुए में धोखे से हराया गया। राजपाट गया। जंगल में रहना पड़ा। द्रोपदी अपनी शंका युघिष्ठिर से पूछती है, "दुर्योधन तो दुष्ट है फिर भी सारे सुखों का उपभोग कर रहा है। आप भले हैं और जंगल में यातनाएं सहते हुए भटक रहे हैं। जाइए और उनसे युद्ध करके अपना साम्राज्य हासिल कीजिए।" युघिष्ठिर धर्मराज हैं। बोले, "मैंने वचन दिया है। इसे मैं नहीं तोड़ सकता। यह धर्म कहता है।" इस तमाम मक्कारी के बावजूद दुनिया की भीड़ में हम "कोई नहीं" हैं और "कोई" होने के लिए संघर्ष करते हैं। चाहते हैं, लोग हमें जाने। हम मनमोहन सिंह हों, राहुल हों, प्रियंका हो, आमिर हों, शाहरूख हों, सचिन हों। "रंगीला" फिल्म का वो गाना याद आता है, "बड़े-बड़े चेहरों में अपने भी चेहरे की पहचान तो हो।" हम सब भला-बुरा करते हुए अपनी अलग "आइडेंटिटी" के लिए जूझ रहे हैं, लेकिन गौतम बुद्ध और गांधी को भी याद करें, जिन्होंने "साधन" और "साध्य" दोनों की समान शुचिता को अहमियत दी। लोग उन्हें जानते भी हैं। क्या ये सब बातें किसी को भला बनाने में मदद करती हैं जबकि वहां से भौतिक सुख गायब है? ओह, कैसी दुविधा है? सब कुछ त्यागना भी चाहता हूं, सब कुछ हासिल करना भी।

मेरी गाड़ी लाल बत्ती पर रूकी। कुछ बच्चे लाचार-सा चेहरा लिए भीख मांगने आते हैं। कुछ के हाथ में कपड़ा होता है। कार का शीशा साफ करते हैं। आजकल ऎसा भी होता है कि दो लड़के छोटी ढोलक बजाते हैं और एक लड़की लोहे की रिंग से अलग-अलग मुद्राएं बनाते हुए निकल जाती है।विस्मयकारी लचीलापन। अगले पल मेरा मन वितृष्णा से भर जाता है। अंगुलियां कार के डैश बोर्ड में कुछ सिक्के टटोल रही होती हैं, जो मेरे बच्चों के चॉकलेट, बिस्किट खरीदे जाने के बाद बचे रहते हैं। वे सिक्के यूं ही लापरवाही से कार में पड़े होते हैं, इस यकीन के साथ कि इन सिक्कों से अब स्वतंत्र रूप से कुछ नहीं खरीदा जा सकता। वे ही सिक्के उन मैले कुचले, निरीह और अनाथ दिखने वाले बच्चों का पेट भरते हैं। कभी-कभी वे अखबार बेचते हैं इस आग्रह के साथ कि आप खरीद लेंगे, तो उसे खाना मिल जाएगा। महाशक्ति भारत के इस चेहरे से मैं अंदर तक हिल जाता हूं। मुझे अफसोस है कि मेरी कार में पड़े चंद सिक्के उन लाखों फुटपाथी बच्चों की भूख नहीं मिटा सकते। क्या आपको भी यह अफसोस है? हां, तो दिल से बुरा कहिए सरकारी नीति-नियंताओं को, इन बच्चों का दिखावटी भला सोचने वाले गैर जिम्मेदार समाजसेवी संस्थाओं को, जो बच्चों का पेट भरने के नाम पर करोड़ों डकार गए हैं...और अपने आपको भी कि आज भी उनका पेट खाली है। हम सब उसी "सिस्टम" में शामिल हैं और उसका पोषण कर रहे हैं।

जेबकतरे भी मुस्कराते
swine फ्लू से आंशिक बचाव के लिए बेटी के स्कूल वालों ने साधारण मास्क पहनकर आने को कहा था। पहली बार मैं मेडिकल स्टोर पर गया, तो उसने चार रूपए एक मास्क के लिए। दूसरी बार गया तो पांच रूपए। तीसरी बार एक दूसरे मेडिकल स्टोर पर गया, तो उसने दस रूपए मांगे। वही मास्क था। मैंने विरोध किया तो उसने देने से मना कर दिया। मुझे लेना ही पड़ा। दो महीने में चौथी बार खरीदने पहुंचा, तो भी दस रूपए लिए। मैंने कहा, "भाई, ये तो पांच वाला ही है?" उसने मुस्कराते हुए कहा, "सर, स्वाइन फ्लू की वजह से कीमतें बढ़ गई हैं।" मैंने मुस्कुराता हुआ जेबकतरा पहली बार देखा है।

published in daily news jaipur on 27 december 2009