
पाकिस्तानी फिल्मकार शोएब मंसूर से जब मैंने पिछले नवम्बर में फोन पर बात की थी तो उनकी दिली तमन्ना थी कि फिल्म खुदा के लिए भारत के लोग देखें। आज उनकी ख्वाहिश पूरी हो रही है। आज भारत में पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए रिलीज हो रही है। जयपुर के एक सिनेमाघर में फिल्म आज से दिखाई जाएगी। क्रिकेट और सिनेमा भारत और पाकिस्तान की कमजोरी रहे हैं। भारतीय फिल्मों और संगीत की पाइरेटेड सीडी डीवीडी से पाकिस्तानी बाजार अटे पड़े हैं क्योंकि पाकिस्तान में सिनेमा इस्लामिक दबावों के चलते कमजोर हो गया। यह साधारण घटना नहीं है। शायद यह पहली पाकिस्तानी फिल्म है, जो भारत में इतने बड़े स्तर पर रिलीज हो रही है। उससे भी असाधारण बात यह है कि जो फिल्म आ रही है, वह करण जौहर, यश चौपड़ा या महेश भट्ट ब्रिगेड के लोकप्रिय सिनेमाओं से थोड़ा अलग है। यदि सिनेमेटिक लैंग्वेज की बात की जाए तो `खुदा के लिए´ एक अच्छी फिल्म है। गोवा में पिछले नवम्बर में हुए अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसकी स्क्रीनिंग हुई थी और मैं गवाह हूं कि लगभग हर स्क्रीनिंग हाउसफुल थी। हमारे यहां जेपी दत्ता की फिल्मों में भारत माता की जय और पाकिस्तान मुदाüबाद के नारे सिनेमाघरों में गूंजते हैं, वैसा कोई कॉनçफ्लक्ट शोएब मंसूर की इस फिल्म में नहीं है कि एक भारतीय होते हुए आपको यह लगे कि आप पाकिस्तान की फिल्म देख रहे हैं, बल्कि एक संवाद ऐसा है, जहां भारत की अहमियत ही दिखाई गई है। जाहिर है भारत के हिंदू मुçस्लम तनावों से अलग पाकिस्तान मुसलमानों के आपसी द्वन्द्व से ही पीडि़त है और उसी दुविधा का शिकार हमारा पूरा देश भी है। एक इस्लाम का उदार चेहरा और दूसरा मुल्ला और मौलवियों द्वारा व्याख्यायित कट्टर चेहरा। जाहिर है, आतंकवाद के बीज कहीं इसी बुनियादी सोच में हैं।गोवा में फिल्म की स्क्रीनिंग से पहले मैंने शोएब मंसूर से बात की थी। वे उस वक्त पाकिस्तान में थे। पाकिस्तान में इमरजेंसी थी और वे कोई भी टिप्पणी करने से बच रहे थे। हां, उन्होंने कहा कि फिल्म भारत और पाकिस्तान के लोगों को इस्लाम समझाने में बेहद मदद करेगी। हम लोगों के लिए सुखद बात है कि फिल्म में नसीरुद्दीन शाह भी हैं। वे आखिरी पन्द्रह मिनट फिल्म में आते हैं और याद रह जाते हैं। अमेरिका पर आतंकी हमले को लेकर हमारे यहां नसीर अपनी पहली निर्देशित फिल्म `यूं होता तो क्या होता´ बना चुके हैं लेकिन उसके केन्द्र में संयोग और इमोशन्स हैं। खुदा के लिए सीधे हमारी सोच पर हमला करती है। बल्कि तारीफ कीजिए शोएब मंसूर की। उन्होंने पाकिस्तान में होकर एक बोल्ड फिल्म बनाने की हिम्मत की है जो हमारे फिल्मकार भारत में रहते हुए बनाने से कतराते हैं। वे इस्लाम के कट्टरपंçथयों को चुनौती देते हैं और अमेरिका की भी पोल खोलते हैं कि आतंकवाद किसने पैदा किया है? दुआ कीजिए कि आ जा नच ले में गाने में एक जातिसूचक शब्द को लेकर हल्ला मचा देने वाले देश में खुदा के लिए निबाüध चले, लोग देखने जाएं। कतई इंटेलेक्चुअल और बौद्धिक लबादों से भरी फिल्म नहीं है। आम भारतीय फिल्मों की उसी तरह की कहानी है कि दो सगे भाई कुंभ में मेले में बिछुड़ गए हैं। सिर्फ ट्रीटमेंट अलग है। भाषा वही है जो हम आम बोलचाल में उदूü बोलते हैं। फिल्म देखने के बाद शायद हम यह समझ पाएं कि हमारी लाडली टेनिस प्लेयर सानिया मिर्जा अपनी ही जमीन पर टेनिस खेलने से क्यों मना कर देती है?