साहित्यिक पत्रिका कुरजां का दूसरा अंक गांव पर केंद्रित है और बाजार में आ गया है। इसमें मैंने मेरे गांव के बारे में एक लेख लिखा है। यहां उपलब्ध है, आपका मन हो तो पढें।
पिताजी के साथ मैं अपने गांव के घर में
बात
उस समय की है जब मैं चौथी क्लास में था। अपने चचेरे भाई गोकुल के साथ खेत से लौट
रहा था। पीठ के थैले पर झाड़ी के बेर थे जो हम अकसर अपनी जेबों में भरकर स्कूल में
ले जाया करते थे। घर पहुंचने से ठीक पहले ही गायों के एक झुंड से एक गाय तेजी से
हमारी तरफ दौडऩे लगी। मैं छोटा था, गोकुल
ने हाथ पकडक़र मुझे खूब दौड़ाया लेकिन उसी समय गाय की भेठी उसकी पीठ पर थी। मेरा हाथ छूटा। मैं झटके से आगे गिरा।
गोकुल गाय की टांगों में गिरा और वहां से उठकर निकल भागा। अब मैं पूरी तरह गाय के
हवाले था। वह शेरनी की तरह मुझ पर टूट पड़ी थी। जैसे तैसे बचा गोकुल मदद के लिए
चिल्ला रहा था। जब तक पड़ोस में रहने वाली सुबीरा गोकुल की आवाज सुन मदद के लिए
लाठी लेकर आई, गाय ने मेरा कचूमर निकाल दिया था।
मेरे रोम रोम से लहू बह रहा था। सिर फट गया था। जिसने मुझे पकड़ा वही खून में रंग
गया। घर लाकर पानी से मुझे धोया जा रहा था और रिसाव वाली जगहों पर कपड़े बांधे गए
और सब दौड़ पड़े गांव के अस्पताल की तरफ। सारा गांव इकट्ठा था। गांव वालों में
मेरे पिता की उम्र के भल्लू राम भी थे। वे गांव की सारी उपलब्ध गालियां गाय के मालिक
को दे रहे थे। मां बहन एक कर दी थी उन्होंने गाय के मालिक की। मैं इकलौता बच्चा था
और सारे गांव वालों समेत भल्लूराम को भी लग रहा था कि मैं बचूंगा नहीं, लिहाजा
उन्होंने गालियों का डोज बढा दिया था। वे गालियां देते हुए थककर चुप होते इससे
पहले ही अपराधी गाय की छानबीन करने गए आदमी ने आकर कहा, यार भल्लू गाय तो तेरे वाली है जिसने मारा है। भल्लू राम
अचानक चुप हुए। फिर धीरे से बोले, आ कैंया होगी, म्हारळी गाय तो मारया ही कोनी करै।(यह कैसे हुआ, मेरी
गाय तो मारती ही नहीं है।)
इस
घटना के बाद स्कूल में जब भी मास्टर जी बोलते थे कि गाय हमारी माता है। तो कभी
उनसे सहमत नहीं होता था।
यह मेरा गांव बिरानियां है। राजस्थान के सीकर जिले में
फतेहपुर के पास। जिसमें पैदा होने और होश संभालने के बाद मेरी पहली ख्वाहिश थी कि
अपने घर में नल होना चाहिए क्योंकि स्कूल के ठीक सामने कुंआ था। मां पिताजी खेत
में हुआ करते थे। यह मेरी ही नहीं मेरे जैसे कई बच्चों की परेशानी थी कि कुएं पर
हलचल दिखते ही हमें लगता था कि गुरुजी से आधे घंटे की छुट्टी लेनी पड़ेगी। हमें
पानी भरना होता था। पांच लीटर का डिब्बा लेकर हम घर से कुएं के बीच चक्कर लगाते
थे। कई बार नन्हे हाथों से वह छूटकर गिरता था और पीछे से आ रहे बुजुर्ग गुस्से से
गाली देते थे कि पानी व्यर्थ बहा दिया। वे यह नहीं पूछते थे कि गिरने से चोट तो
नहीं लगी। यानी गांव में जीने का पहला सबक यही है कि जितने जल्दी स्वावलंबी बनो
अच्छा है और नंबर दो बात जब संसाधनों की दुरुपयोग की है तो आपसे कोई सहानुभूति
नहीं। आपकी चोट तो ठीक हो सकती है लेकिन आपकी लापरवाही से जो पांच लीटर पानी चला
गया, वह तो व्यर्थ ही हुआ ना।
इसका
मशहूर किस्सा भी है। गांव की बस से शहर जा रहे ताऊ बस की खिडक़ी में पैर टिकाकर
खड़े थे कि सामने आ रही कंटीली झाड़ी देखकर कंडक्टर ने चेताया कि ताऊ, थोड़ा तिरछा रहणा वरना पीठ फट जाएगी और ताऊ का जवाब आता
है, पीठ फट जाए दुख नहीं यार, कमीज नहीं फटणी चाहिए
गाय
के हमले से घायल होने के बाद मैं फतेहपुर के अस्पताल से लगभग मौत के मुंह से
निकलकर आया था तो जिस ऊँटगाड़ी में मैं गांव लौटा था उसी में कुछ पाइप जैसा कुछ
सामान था और गांव पहुंचने पर पता चला कि पाइपलाइन डल गई है। नल अब हर घर में होगा।
मुझे अब पानी भरने के लिए कुएं पर नहीं जाना होगा। यह सन 1984 की बात है।
चूंकि
यह पानी की सप्लाई ट्यूब वेल से हुई थी तो गांव के एक हिस्से में बिजली भी घुस गई
थी और उसका सीधा संबंध मेरी दूसरी इच्छा से था।
पिताजी
ने एक लैंप लाकर दी थी। मिट्टी का तेल उन शायद आसानी से मिल जाता था। राशन में आता
था। लैंप की रोशनी चिमनी से बेहतर होती थी और मैं ही नहीं मेरे आस पास के पड़ोसी
बच्चे भी उस बेहतर रोशनी के लालच में मेरे यहीं पढऩे आते थे। गर्मियों में घर की
छत पर बीचों बीच लैंप रखी जाती और उसे चारों और हम लोग घेरा बनाते थे, जब तक मन होता पढते थे और उसके बाद वहीं सो जाते थे। गांव
के दूसरे हिस्से के कुछ बच्चों के घर में बिजली आ गई थी हालांकि बहुत से परिवार अब
भी ऐसे ही थे कि वे बिजली का खर्च वहन नहीं कर सकते थे इसलिए तार खंभे से डालकर
चोरी करते थे। उनके बच्चे थोड़ी हेकड़ी से हमारे मोहल्ले वाले बच्चों को देखते और
यह रौब झाड़ते कि वे अब बिजली में पढ़ते हैं। हमने अपने हीनताबोध से निकलने का
उपाय यह निकाला था कि सरकारी मेहरबानी से बिजली बहुत ही कम आती थी। उन बच्चों को
बिजली के टाइमटेबल के हिसाब से चलना होता था। हम अपना टाइमटेबल खुद बनाते थे
जिसमें सबसे ऊपर यह लिखा जाता था कि प्रात: साढे पांच बजे उठना। पांच से साढे पांच
नित्य कर्मों से निवृत्ति (हालांकि ऐसा कभी होता नहीं था, इतनी सुबह हाजत ही नहीं होती थी लेकिन गुरुजी का दबाव ऐसा
था कि उठने के बाद शौचादि से निवृत्त होने के बाद ही अध्ययन करो तो याद रहता है)
और बाद में जो भी गणित अंग्रेजी विज्ञान आदि पढने का कार्यक्रम बनाते थे। बिजली
बाले बच्चे हमारी तरह स्वतंत्र नहीं थे। हम जब भी जागें तभी लैंप जलाएं और पढना
चालू।
इसी
के समांतर मेरी तीसरी इच्छा जुड़ी हुई थी। जब भी मुझे ननिहाल जाना होता था तो गांव
से तीन किलोमीटर दूर से एक बस पकडऩी होती थी। बचपन में मां गोद में लिए चलती थी
लेकिन जब वजन कुछ भारी हुआ तो पैदल ही चलाती थी। बहुत जोर आता था बस तक पहुंचने
में। मेरी इच्छा यह थी कि फतेहपुर जाने के लिए गांव से ही बस जानी चाहिए लेकिन मैं
इच्छा ही रख सकता था। सरकार या प्राइवेट बस आपरेटर्स को यह ज्ञापन नहीं दे सकता था
कि हमारे गांव से बस चलनी चाहिए।
और
वे सचमुच सुकून देने वाले दिन थे जब एक दिन ट्रेक्टर में भरकर सफेद लंबे बिजली के खंभे
हमारे मोहल्ले में उतरे। बिजली विभाग वाले लोगों का इंतजार किए बिना गांव के
युवाओं ने अपने हिसाब से नापकर गड्ढ़े खोदे। हमारे गांव के हनुमान बिजली विभाग में
लाइन मैन थे और उन्हीं के सलाह मशवरे से खंभे खड़े हो गए। बिजली वाले उन पर तार
खींच गए। बिजली के कनेक्शन हुए और घर के कमरे में जब पहला लट्टू जला था तो मैं
बहुत खुश हुआ था।
उसी
दौरान हमारे पड़ोसी गांव के एक आदमी ने बस खरीदी थी और उसे भैरजी नामक ड्राइवर
चलाते थे। उनकी प्रतिष्ठा ऐसी ही थी जैसे वे बोइंग विमान चला रहे हों। और तो और
हममें से ज्यादातर बच्चों ने अपने करियर का पहला सपना देखा था कि हम बड़े होकर बस
ड्राइवर बनेंगे। क्योंकि यह सबसे आनंददायी काम लगता था। हम बच्चे रोज सवारियां
गिनते थे क्योंकि बस ट्रायल पर चली थी कि पंद्रह बीस दिन में यदि सवारियों से
खर्चा ना निकला तो बस बंद हो जाएगी। हम बच्चे दुआ करते थे कि ऐसा ना हो। हम लोग
बनावटी ड्राइवर कंडक्टर को खेल खेलते थे। कागज की पन्नियां फाड़क़र किराया वसूलते
थे और चूंकि हमें सुबह शाम एक बार बस देखने को मिलती थी तो हम इंतजार करते थे कि
कब आएगी और उसे देखने के लिए उतने ही उत्सुक रहते थे जैसे कोई चिडिय़ाघर में पहली
बार शेर देखने के लिए उत्सुक रहता है।
बस
में सवारियां होने लगी थी और तय हो गया कि बंद नहीं होगी। बल्कि उसके फेरे एक से
दो हो गए।
लेकिन
फिर भी एक दिक्कत थी। मई जून में तेज आंधियां चलती थी। बस के रास्ते खोखले से हो
जाते थे। उसके पहियों वाली जगह मिट्टी भर जाती थी। उन दिनों बस नहीं चला करती थी।
दिन इतने गर्म हुआ करते थे कि शरीर में खून तक उबलने लगता था। शामें ठीक होती थीं
और रातें बेहद शीतल अहसास देने वाली। इन्हीं दिनों में मूंज की कुटाई होती थी और
मोहल्ले के बीचों बीच रखी एक चौकी पर कोई ना कोई छोटी छोटी पूळियों को कूटता था और
भरी दोपहर मोगरी की आवाज आती रहती थी। एक आदमी को दिन भर मेहनत के बाद कोई एक या
दो पूळी कूट पाता था जिसमें वह पसीने से लथपथ हो जाता था। फिर एक दिन दूसरे गांव
से आए एक मेहमान ने बताया कि सडक़ आने के बाद से उनके गांव में यह आराम हुआ कि
बारहों महीने बस चलती है। मिट्टी में लोकल गाडिय़ां भी नहीं फंसती। गांव का दूध और
अन्य सामग्री शहर में बेची जा सकती है और तो और मूंज कूटने की जरूरत नहीं पड़ती।
बस सडक़ पर पूळी डाल दो और बार बार आती जाती बसों और गाडिय़ों के पहियों के नीचे वह
वैसे ही तैयार हो जाएगी। मेरी चौथी इच्छा अब ये हो गई थी कि गांव में सडक़ आ जाए।
देखते
ही देखते गांव के एक हिस्से में सडक़ का शुरू हुआ लेकिन फतेहपुर बारह किलोमीटर था
और सडक़ बनने के बाद वह अठारह किलोमीटर दूर हो गया क्योंकि सडक़ कई गांवों से घूमते
हुए हमारे गांव में पहुंची थी। लिहाजा उस सडक़ का इस्तेमाल बहुत ही कम होता था।
एक
दिन हमारे इलाके के सांसद गांव में किसी के यहां आए। यह जून की कोई दोपहर थी। वे
शहर से सीधे लग रहे रास्ते से आ रहे थे, जहां सड़क नहीं थी। उनकी कार एक टीले में
फंस गई। उनके साथ मौजूद चार पांच लोगों ने लाख कोशिश कर ली गाड़ी टस से मस नहीं
हुई। उसी समय शहर से गांव आने वाली बस आई और लोगों ने देखा कि सांसद की गाड़ी फंसी
है। सबने कहा, आप बस में बैठिए, आपकी गाड़ी को गांव के युवा लोग निकाल लाएंगे। इनका अभ्यास
है। प्यास से बेहाल और पसीने से लथपथ एमपी साब ने गांव वालों से शिकायत की कि ये
रास्ते की क्या हालत कर रखी है? तो उल्टे गांव वालों ने कि रास्ता
खराब कहां है? आपने कितनी अच्छी सडक़ बनवाई है? हम तो रोज ऐसे ही आपकी बनवाई सडक़ का सुख लेते हैं? आप एक दिन में ही उकता गए़? सांसद बेहद शर्मिन्दा थे और अगले पंद्रह दिन में गांव से शहर को
जोडऩे वाली सीधी सडक़ का काम शुरू हो गया था। फिल्म भोभर में एक दृश्य भी हमने
ऐसा ही रचा था जिसमें एमएलए की जीप मिट्टी में फंस जाती है।
और
सडक़ बनने के बाद तो वहां सब कुछ तेजी से बदलने लगा। उस गांव में जहां मैं पैदा हुआ, लगभग वो सब अब आने लगा जो शहर के लोगों को नसीब था। कुछ
दुकानों पर ताजा सब्जियां और फल, लोगों के घरों में अपने निजी वाहन।
युवाओं में खासकर मोटर साइकिल लोकप्रिय होने लगी। धीरे धीरे गांव की दुकानों में
बाजार घुसने लगा। दही और छाछ से सिर धोने वाली गांव की नव यौवनाएं अब शैम्पू की
मांग करने लगीं। दूध ओर छाछ पीने वाले किशोर और युवा दुकानों से पेप्सी और कोका
कोला पीने लगे। कुर्ता पायजामा और गांव के दर्जी से कपड़े सिलवाकर पहनने वाले युवा
अब जींस की पेंट और टी शर्ट के उपभोक्ता हो गए। उनके मुंह में गुटखा आ गया और जेब
में सिगरेट को पैकेट। शाम ढलते ढलते वे ठेके की तरफ जाते थे और देसी शराब से इतर
वे अंग्रेजी पीने लगे। यह उनके जेब के बूते की बात नहीं थी लिहाजा कोई नहीं जानता
था कि उनके पास यह पैसा आ कहां से रहा है। मैंने लगातार देखने की कोशिश की लेकिन
समझना मुश्किल था। वे छोटे मोटे अपराध करने लगे। कुछेक लोग हरियाणा से शराब लाकर
बेचने लगे ओर मैंने देखा पहली बार हमारे गांव को कोई युवक चोरी के आरोप में भी
पकड़ा गया। बाद में एकाध लोग अवैध शराब के धंधे को लेकर भी पकड़े गए। अपने गांव को
लेकर इस तरह की इच्छाएं कभी नहीं की थीं।
बारिश
के दिनों में जब गांव भर का पानी बहकर एक जगह तालाब सा बना लिया करता था, वह जगह हम किशोरों और गांव की भैंसों में समान रूप से लोकप्रिय थी।
बेखौफ वहां स्नान होता था। अब बहते नाले में नहाना मुमकिन नहीं। वो गंदा हो गया
है। उसमें प्लास्टिक और कांच की बोतलें इतनी होती है कि घायल होने के खतरे हैं।
हमारे दौर के कितने ही बच्चे नंगे पांव स्कूल जा सकते थे लेकिन अब रास्ते
सुरक्षित नहीं है। हां, गंदगी शहरों के मुकाबले अब भी कम है।
मुझे याद है फागुन के दिनों में लगभग पूरे महीने ही जश्न का माहौल
होता था। बाद में वह सिमटकर पंद्रह दिन पर आया और एक दौर ऐसा आया जब वह लगभग बंद
ही हो गया था। पिछले तीन चार साल में युवाओं ने एक नवयुवक मंडल बनाया और होली के
आयोजन को वापस एक हफ्ते के जश्न तक ले आएं हैं लेकिन आश्चर्यजनक रूप से गांव को
सबसे बड़ा निवेश इन दिनों में एक मंदिर पर हुआ। लोग कहते हैं करीब डेढ करोड़ रूपए
इसमें खर्च हुए हैं। मैंने जब भी अपने परिवार से इतर इस निवेश को लेकर लोगों से
बात करने की कोशिश की तो लोग नाराज हुए। यह एक दुर्गा मंदिर है और ग्रामीण इलाके
में सबसे भव्य दुर्गापूजा हमारे गांव में होने लगी है। मैंने कितनी ही बार कहा कि
ये पैसा सबको मिलकर एक लाइब्रेरी में लगाना चाहिए, जो गांव के युवाओं के काम आएगा।
लेकिन कोई नहीं सुनता। ऐसी अंधी आस्था बुजुर्गों में कभी नहीं थी। हां, मंदिर थे।
एक पुजारी पूजा भी करता था लेकिन दो चार पांच लोगों के अलावा कोई भी मंदिर जाता
नहीं था। सिर्फ त्योहार के वक्त ही भीतर जाना होता था लेकिन अब यह बढ गया है।
गांव के बहुत से युवा कमाने के लिए गांव छोड़ रहे हैं। ज्यादातर
लोग खाड़ी देशों में काम कर रहे हैं। जो पढ लिख गए वे अध्यापक हो गए हैं और कुछ
लोग सेना में नौकरी कर रहे हैं। सारे समर्थ लोगों में आजकल एक ही होड़ है कि वे
निकटवर्ती कस्बे में प्लॉट खरीद लें। उन्हें रहने के लिए अब शहर की जरूरत होने
लगी है जबकि अब गांव में सब कुछ है। सड़क, पानी, टेलीफोन, इंटरनेट ब्रॉडबैंड,
डीटीएच आदि। एक अस्पताल भी है और वहां डॉक्टर के रहने का दबाव गांववालों ने ही
बनाया है। कुछ लोग निवेश के लिए शहरों में जमीनें खरीद रहे हैं।
जब से नरेगा नाम की सरकारी योजना आई है तो चीजें और भी स्पष्ट हो
गई हैं। अब गांव में ही रहने वाले के लिए रोजगार उपलब्ध है। मुझे हमेशा ऐसा लगता
है कि पढाई लिखाई और जागरूकता चीजें ठीक करती हैं और लोग अपने हक के लिए खड़े होने
लगे हैं। पूरे पांच साल चुनाव में शक्ल ना दिखाने वाले एमएलए या एमपी से वे सीधे
जबावतलब करते हैं। अपनी जरूरत के मुताबिक अपने गांव में काम कराते हैं। हालांकि इस
प्रक्रिया का बहुत बड़ा नुकसान भी राजनीति ही करती है। अगर आपकी पार्टी का सरपंच
नहीं है तो आपके काम होने में जोर आता है ओर आपका सरपंच आ गया तो आप दूसरों को
कीड़ा मकोड़ा समझने लगते हैं।
बहरहाल तमाम गुण दोषों के बावजूद मैं याद करता हूं एक ऐसे गांव को
जहां सब चेहरे एक दूसरे के जाने पहचाने हैं। जहां जन्म, शादी और मरण तक सब आपके
साथ खड़े नजर आते हैं। उन लोगों की महत्वकांक्षाएं बहुत बड़ी नहीं हुई हैं। हां,
मेरे गांव के लोग अब हिरण नहीं है जिनका आसानी से शिकार किया जा सके, लेकिन वे
भेडि़ए भी नहीं बन पाएं हैं कि बेगुनाहों का बेहिचक शिकार करें। मेरे जीने का
आदर्श और जो सबसे बड़ी इच्छा यह है कि उस गांव के लिए कर सकूं, जिसने मुझे पाला
पोषा, प्यार दिया। मैं उन बड़े होते बच्चों को वही मासूमियत बख्श सकूं जो मेरे
बुजुर्गों ने मुझे बख्शी। मैं उनको उसी समर्पण भाव से पढा सकूं जैसे सरकारी स्कूल
के शिक्षक पढाया करते थे। अब तो पूरे गांव के लोगों में यही भाव आ गया है कि जो ज्यादा
पैसा लेता है, वह ज्यादा अच्छा पढाता है, जबकि मैं यह जानता हूं कि यह सच नहीं
है। पूरे खराब शिक्षा तंत्र की कीमत मेरा गांव भी चुका रहा है। मैं इतना समर्थ बन
सकूं कि मैं अपने गांव को बचा सकूं। हालांकि यह उतना ही मुश्किल है जितना बाजार से
खराब हुई दुनिया को बचा पाना। लेकिन उम्मीद मेरी टूटी नहीं है, क्योंकि करीब दो
दशक एक बड़े शहर में रहने के बावजूद मेरी रंगों में मेरा गांव ही बहता है। वह मेरी
रूह में बसा हुआ है। मेरी सारी ऊर्जा का स्रोत वही है। वही मेरा सूरज है। वह डूब
भी रहा है तो मुझे यकीन है एक दिन फिर उगेगा। आमीन।
19 टिप्पणियां:
बहुत खूब लिखा है रामकुमार जी ने... गांव के शहर बनने और खो जाने की खूबसूरत दास्तान...रामकुमार जी की किस्सागोई लाजवाब है...
hamara gaon jo hamari ruh me basa hua hai :)
manoj jhuria
mardatu bari
गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू से रूबरू करवा दिया आपने रामकुमार जी... आभार...
बहुत ही बढ़िया सर जी।
बहुत बढ़िया सर जी।
बहुत बढ़िया सर जी...
मासूम इच्छाएं, रोचक आलेख... :)
आपके बचपन और गाँव के बारे मे इतने विस्तार से जान काफी अच्छा लगा !
आपकी दुआ मे हमारी भी दुआ शामिल रहे सो ..।
आमीन !
मुझ से मत जलो - ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग जगत मे क्या चल रहा है उस को ब्लॉग जगत की पोस्टों के माध्यम से ही आप तक हम पहुँचते है ... आज आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !
एक और बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाइयाँ !
राम सर, आपका गांव से जुड़ाव तो खैर सभी जानते ही हैं, आपके कहानियों में भी अकसर आपके गांव का जिक्र रहता है, लेकिन गांव को लेकर आपका निष्पक्ष नजरिया, वाकई काबिले तारीफ है
रोचक पोस्ट ,काबिले तारीफ ।
मेरी नयी पोस्ट -"क्या आप इंटरनेट पर ऐसे मशहूर होना चाहते है?" को अवश्य देखे ।धन्यवाद ।
मेरे ब्लॉग का पता है - HARSHPRACHAR.BLOGSPOT.COM
a great life
A GREAT LIFE STORY
बेहतरीन आलेख सर जी! आपने अपने छोटे-छोटे सपनों के बहाने पूरे देश, बल्कि दुनिया के यथार्थ से साक्षात्कार करवा दिया. बधाई!
बड़ी ही रोचक लगी आपकी जीवन कथा..गाँव आपका प्रेरणास्रोत बना रहे।
शानदार तरीके से बाजारवाद के कारणों का जिक्र किया आपने.
दिल का हाल सुने दिलवाला --गीत याद आ गया आपकी लेखिनी से. बधाई.बहुत अच्छा लिखा है आपने.
padhane me bahut anand aaya ,aapki chinta vajib hai bachpan ki saral ichhaon ki tarah gaon ko le kar aapki jo ichha hai ishwar unhepoorn kare yahi kaamna hai .
padhane me bahut anand aaya ,aapki chinta vajib hai bachpan ki saral ichhaon ki tarah gaon ko le kar aapki jo ichha hai ishwar unhepoorn kare yahi kaamna hai .
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