शनिवार, अक्तूबर 23, 2010

लाइट | कैमरा | एक्‍शन … और वो साढ़े सात दिन!


जयपुर से जब हम निकले थे तो वह छह अक्टूबर की सुबह थी। हमारी फिल्म भोभर के लिए आठ की सुबह कैमरा रोल होना था। चौदह की शाम साढ़े चार बजे पैक अप होना था। एक एक शॉट के लिए एक्सेल शीट पर समय तय था। लगभग साठ शॉट रोजाना लेने की जिद थी और मौका लगा तो यह संख्या अस्सी तक ले जाने का जुनून भी। लेकिन सिनेमा में सब कुछ वैसा नहीं होता, जैसा हम सोचते हैं। पहले ही दिन कैमरा रोल होने में डेढ़ घंटे का विलंब हो गया, नतीजा जो काम दिन में तीन बजे खत्म होना था वहां रात के नौ बज गये। नौ बजे लोकेशन शिफ्टिंग हुई और लाइटिंग में ही रात के बारह बज गये, जो कि शिड्यूल के हिसाब से पहले दिन के पैक अप का समय था, पहले दिन का ही काम बहुत बच गया था। लिहाजा सुबह साढे चार बजे तक काम किया गया।

सबने कहा, पहले दिन ऐसा ही होता है। टीम को अपनी गति पकड़ने में समय लगता है लेकिन ज्योंही डायरेक्टर ने अगले दिन का कॉल टाइम साढ़े नौ बजे रख दिया, तो सबके पसीने छूट गये। हालांकि सैट पर पहुंचते पहुंचते सबको साढ़े ग्यारह बज गये और कैमरा रोल हुआ एक बजे। सब नींद में ऊंघ रहे थे और एक दूसरे को कातर निगाहों से देख रहे थे।

हालांकि यह मेरा फील्ड कतई नहीं था कि मैं प्रोडक्शन टीम को हैंडल करुं लेकिन चूंकि पूंछ में आग हमारे लगी थी और जेब से पूंजी फुंकने की जलन भी हो रही थी। गजेंद्र से चर्चा की और हमारी समझ में आ गया कि इस तरह तो पंद्रह-बीस दिन लग जाएंगे। उस दिन पैक अप जल्दी किया गया ताकि सब लोग पूरी नींद ले सकें। अगली सुबह नाश्ते पर गजेंद्र और हमने पूरी टीम से बात की। हमारे कैमरामैन योगेश ने कहा कि क्यों नहीं हम लोग यह संकल्प लें कि अब होटल से निकल रहे हैं तो फिल्म पूरी शूट करके ही वापस लौटेंगे। हमें सुनने में बहुत अच्छा लगा लेकिन इसकी व्यावहारिकता समझ में नहीं आ रही थी।

बहरहाल हमारा पूरा क्रू ही कोई चालीस लोगों का था और एक स्वतंत्र छोटे बजट के लिए यह संख्या काफी थी। गजेंद्र ने पूरे क्रू से बात की। लाइटमैन्स को शुरुआती संदेह था कि इतने काम का उनका मेहनताना क्या होगा? हमने उन्हें आश्वस्त किया कि वे सब लोग अपना समय नोट करते रहें और सबको सबकी मेहनत का पैसा मिलेगा लेकिन यदि शूटिंग आगे खिसकती है और यही धीमी गति रहती है तो हो सकता है हमारी फिल्म रुक जाए और ऐसा कोई नहीं चाहता था। क्योंकि चौदह तारीख के बाद हमारे लीड एक्टर्स और कैमरामैन की भी डेट्स हमारे पास नहीं थी। शूटिंग बीच में रहने का मतलब था कि कोई नहीं जानता कि वह दुबारा कब शुरू होगी। ऐसा बड़ी फिल्मों के साथ भी होता है, तो हम तो बहुत छोटे प्रोड्यूसर हैं।

बहरहाल मैं उस टीम को सलाम करुंगा, उस क्षण को याद करुंगा जब सबने एक स्वर में कहा कि हम सब तब तक काम करेंगे, जब तक फिल्म पूरी नहीं हो जाती। नींद बर्दाश्त करेंगे। पारियों में सो जाएंगे। मिल बांटकर काम करेंगे। लेकिन इस संकल्प के बाद टीम में अब हर आदमी हर काम कर रहा था। लाइट वाले का स्कीमर पकड़े रहने में सैटिंग वाले को परेशानी नहीं थी। कैमरा अटेंडेंट का ट्रायपॉड लेकर चलने में लाइटमैन को परेशानी नहीं थी। सबको पानी पिलाते रहने में मुझे कोई परेशानी नहीं थी। पूरी टीम के प्रति हम कृतज्ञ थे कि उनके चेहरे पर शिकन नहीं थी। हमारा शिड्यूल फिर भी डिले था और पेंडिंग काम धीरे-धीरे कवर हो रहा था। जो लोग बिल्कुल नहीं सो रहे थे, उनमें हमारे डायरेक्टर गजेंद्र और कैमरामैन योगेश थे। मुझे और मेरे सहयोगी आलोक को नींद आ भी नहीं रही थी। मैं तो अब भी वो सारा तनाव, सारी भागदौड़ याद करता हूं तो नींद में ही बिस्तर से उठ जाता हूं। तीन दिन से ठीक से सो नहीं पा रहा हूं।

फिल्म का सैट गांव में मेरा अपना घर था। उससे लगा खेत था। मम्मी-पापा को इतने मेहमानों की आवभगत को मौका मिला था लिहाजा चूल्हा कभी ठंडा नहीं रहा। रातभर चाय उबलती और दिन में गांव से मटके भरकर छाछ आ जाती। पूरी टीम ने मां से सीधा रिश्ता बनाया और जिसको जिस चीज की जरूरत होती किचन में घुसा पाया जाता। घर में हमारे परिवार के बाकी सब लोग भी टीम की जरूरतों को खास ध्यान रखने लगे और जब देखा कि चौबीसों घंटे सब लोग काम में जुटे हैं, तो गांव वालों ने भी आखिर मान ही लिया कि फिल्म बनाना आसान काम नहीं है।

मेकअप टीम के दोनों लोगों ने समय बांट लिया कि दोनों बारह-बारह घंटे बारी-बारी सैट पर रहेंगे। चार लाइटमैन्स ने तय कर लिया कि एक आदमी आठ घंटे सोएगा बाकी तीन काम करेंगे। सेटिंग तीनों लोगों ने अपना समय बांट लिया। एक्टर्स ने अपने शॉट्स के हिसाब से समय तय कर लिया कि कब सोना है? कैमरे के साथ आये मनोज को हमने आश्वस्त किया जब लाइटिंग हो रही हो शॉट चल रहे हों तो हम सब संभालेंगे। हमारे आश्वासन पर वह बीच बीच में दो तीन घंटे की नींद ले ही लिया करता था। चूंकि हमारी पूरी टीम ही जयपुर की थी और सब एक दूसरे को वैसे भी जानते थे।

राजस्थान में अक्टूबर के दिन काफी गर्म होते हैं और रातें उसी अनुपात में काफी ठंडी। दिन में सब झुलसते और रात को ठिठुरते। घर के जिस कमरे से कंबल, बैडशीट, शॉल, तौलिया जिसको जो मिला लपेट लेते।

डायरेक्शन टीम में आसिफ के पास हर तनाव को एक ही नारा था कि बोलो जय सिया राम, बन गया काम।

डायरेक्शन टीम के ही श्रीकांत और विनय इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर के स्टूडेंट थे और अपना कॉलेज छोड़ वहां लगे हुए थे। उनके हाथों में क्लैप और स्क्रिप्ट की फाइलें भरी रहतीं। लगातार जागते रहने से उनके चेहरे पर थकान साफ दिख रही थी। फीचर फिल्म का उनका पहला अनुभव था और वह भी लगातार काम करने का। मैंने उनसे कहा, इस फिल्म के बाद शायद ही तुम लोग अब फिल्मी दुनिया में जाने की सोचो। दोनों ने कहा, सर, हमें लग रहा है कि इंजीनियरिंग ही छूटेगी। इधर तो अब मजा आ रहा है।

तीन दिन लगातार काम करने के बाद तेरह अक्टूबर की सुबह तक हम लगभग आश्वस्त हो रहे थे कि हम शिड्यूल के करीब हैं। बात चौदह की शाम तक काम करने की थी लेकिन चौदह की पूरी रात काम किया। सुबह होते ही योगेश को जाना था लिहाजा जो कुछ काम बचा, वह मनोज ने हैंडल किया। पंद्रह की सुबह ग्यारह बजे क्रू को पैकअप कर दिया गया।

पूरी टीम ने कहा – इस बार हम जरा लेट चेते, अगली फिल्म में हम शुरू करेंगे और खत्म करके ही ब्रेक लेंगे। मैंने हाथ जोड़ दिये कि अगली फिल्म के लिए हम ज्यादा बजट रखेंगे और ज्यादा ब्रेक। इतना काम दुबारा करने की कल्पना मात्र से ही सिहरन होती है। तो इस तरह सात दिन के शिड्यूल को हम साढ़े सात दिन में पूरा कर पाये। इस दौरान कितनी समस्याएं कितने समाधान हर घंटे हमसे मुखातिब होते थे। मेरे दिमाग की मेज पर इतनी सारी फाइलें बिखरी थीं, जिनमें खाना पीना, अगली लोकेशन, गाड़‍ियां, डेट्स के अनुसार जयपुर से एक्टर्स का आने-जाने और ठहरने की व्यवस्था देखना, स्थानीय स्तर पर ऊंटगाड़ी, ट्रैक्टर आदि का इंतजाम आदि। वे सारे किस्से फिर कभी बाद में। लेकिन मुझे अनुराग कश्यप की वो बात हमेशा याद रही कि यदि आप बजट को कम से कम रखोगे फिल्म बनाने में, तो जोखिम भी उसी अनुपात में कम होती जाएगी। यह बजट कम तभी रहा जब हमारी टीम कंधे से कंधा मिलाकर हमारे साथ खड़ी थी। मैं और भी फिल्म क्रू के साथ रहा हूं, लेकिन इतना अपनापा पहली बार देखा। यह जादुई था। आगे क्या होगा देखा जाएगा? फिलहाल फिल्म कल से एडिट टेबल पर जा रही है।

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मन लगा जुट जइबे करी,
काम तो हुइबे करी।

कडुवासच ने कहा…

... काफ़ी मेहनत का काम लग रहा है !!!

काशीराम चौधरी ने कहा…

bahut achchhe sir.

काशीराम चौधरी ने कहा…

bahut achche sir.