मैं नहीं जानता था कि फेसबुक पर एक योजना के बारे में मेरा एक संदेह और लेखक के हित में सोचने की बात पर एक बहस इतना जोर पकड लेगी। मुझे लगा कि एक जवाब आएगा कि ये किताबें बिना पैसा लिए छापी गई हैं। जाहिर है भाई, माया ने यह खर्च वहन किया होगा या उनके सलाहकार और संपादन मंडल में शामिल लेखक मित्रों ने।
लेकिन बात निकली और दूर तक जा रही है। अभी तक थमी नहीं है। मैं इसीलिए यह लेख लिखने का प्रेरित हुआ हूं।
योजना को लेकर सब तारीफ कर रहे हैं तो क्या मैं इतना बेवकूफ हूं जो इस बात की तारीफ नहीं करुंगा कि पाठक को सस्ती दर पर उम्दा साहित्य उपलब्ध कराया जा रहा है। लेकिन सवाल अब भी वहीं खडा है कि यदि माया इसकी कीमत चुका रहे हैं तो गलत है। लिखने वाला लेखक चुका रहा है तो भी गलत है। लेखक की जितनी गरज पढने की है उतनी ही गरज जब तक पाठक की पढने की नहीं होगी तो लिखने लिखाने के उपक्रम का अर्थ ही क्या है। मेरे गांव में कहावत है कि ‘ रोयां बिना तो मां भी बोबो कोनी दे’ अर्थात बच्चा जब रोए नहीं तब तक मां भी उसे दूध नहीं पिलाती। जिन बच्चों के पीछे आजकल की माताएं दूध की बोतल, कटोरे, स्वास्थ्यवर्धक भोजन की थाली हाथ में लिए मनुहार करती हैं, ना तो वे भोजन की अहमियत समझते हैं ओर ना ही मां के दुलार को, ऐसे बच्चे बिगडैल हो जाते हैं। लेखक और पाठक का रिश्ता ऐसा ही है। मां बेटे जैसा। ऐसा नहीं है कि आप अपने लेखक और लेखक अपने पाठक को प्यार नहीं करता लेकिन मुझे लगता है कि हम उस पाठक के पीछे दूध की बोतल लेकर दोड़ रहे हैं कि आ जा, जल्दी पी ले, नहीं तो तू छोटा ही रह जाएगा। वो हमारे ममत्व को समझ भी रहा है कि नहीं। मुझे लगता है उसे बिगडै़ल बच्चा बनने से बचाइए।
दूसरी बात, कि कुछ मित्रों की राय है कि अब तक लेखक को रॉयल्टी नहीं मिली और अब भी ना मिले तो हर्ज क्या है। ऐसा क्यों सोचते हैं आप। हिंदी में प्रिंट ऑर्डर तीन सौ पर आ गया है तो इसमें गलती किसकी है, महंगी कीमत, मुझे नहीं लगता कि कोई आधार है। नाम लूंगा तो बुरा लगेगा लेकिन एक पाठक के नाते मैं सत्तर से अस्सी प्रतिशत हिंदी लेखकों के माल को रद़दी के भाव ना लूं। आप प्रकाशकजी, उस किताब को सौ रुपए, डेढ सौ रूपए, दो सौ रुपए में बेचेंगे और कहेंगे कि पाठक नहीं है तो भैया गलत बात है। तीसरी बात, यही खराब किताब आप दस रुपए में उसे बेच देंगे तो आपने साहित्य का एक पाठक खो दिया। इतनी रद़दी किताब पढकर वे साहित्य से नफरत ही करने लगेगा। यानी किताब अच्छी हो या बुरी सस्ती बेचने पर नुकसान ही है अतंत: मुझे किसी का फायदा नहीं दिखता। जैसा कि भाई रवीन्द्र नाथ झा ने कहा है कि आदमी लेखक तो होना चाहिए। सिर्फ लिखते रहने वाला नहीं। आप पूछिए, लोकायत के शेखर से और हास्य कवि संपत सरल से भी कि खोया पानी की तारीफ सुनने के बाद कितने लोगों ने उसे सिर्फ माउथ पब्लिसिटी से खरीदा। आंकडा बहुत उत्साह जनक नहीं है, लेकिन मेरे आदरणीय यशवंत व्यास ने जब स्वयं अपनी देखरेख में ही अपनी किताबों का विपणन शुरू किया तो उनके सामने नतीजे अच्छे थे कि उनकी किताब बिक रही है। उन्होंने लाइब्ररी में किताब नहीं बेची। लेकिन समस्या व्यापक है। मेरे समझदार मित्र मुझे माफ करेंगे लेकिन यह सच है कि हिंदी विभागों में इतने कूढमगज अध्यापक भर गए हैं जो साहित्य पढाना ही नहीं जानते। उनकी अपनी संवेदनाएं ही नहीं हैं। वे डिपार्टमेंटल पॉलिटिक्स और अन्य व्यसनों में ही लिप्त हैं। उनके लिए वह एक आजीविका है। उनमें मास्टर दीनानाथ ब्रांड मामूली आदर्श और समझ भी नहीं बची तो क्या खाक अपने स्टूडेंट़स को साहित्य समझा पाएंगे। हिंदीवालों को नौकरी की वैसे भी मारामारी है। हमारे वे पाठक अपनी साहित्यिक रुचि की वजह से ही हिंदी विभाग तक आते हैं। वहां लेखक बनाना दूर, एक समझदार पाठक बनाने का काम भी नहीं होता। जड़ से उसको खत्म करने का काम यहीं होता है। मैं हिंदी की एक वाद विवाद प्रतियोगिता में जज बन कर गया था। एक व्याख्याता मित्र के कहने से। मुझे जो मानदेय दिया गया कि उस पर उन्होंने अपने हाथ से वाद विवाद प्रतियोगिता और मेरा नाम लिखा। मानदेय की राशि लिखी। इन तीन लाइनों में वर्तनी की छह गलतियां थीं जो अनजाने में नहीं हुई थीं। सचमुच उन्हें हिंदी लिखनी नहीं आती। तो जो स्टूडेंट आपका एक पुख्ता पाठक बन सकता था कि उसे हमारे हिंदी विभागों ने खत्म कर दिया है दोस्तो। और पूरे जोर शोर से वे इस अभियान में लगे हुए हैं। वे छात्र साहित्य को पढना नहीं सीखते, सिलेबस में ठुकी हुई किताबों को पढने को अभिशप्त हैं। जो साहित्य में रुचि के लिए प्रवेश लेते हैं वे ही विभाग से निकलते हुए रट़टा मार रहे हैं नेट स्लेट के लिए। वे ही आगे पढाने पहुंच जाएंगे। दुर्भाग्य से सिलेबस भी प्रकाशकों के अहसानमंद या प्रकाशकों को अहसान चुकाने वाले लोगों द़वारा तैयार किया जाता है, बहस दिशा ना छोडे तो पुन: बिंदु पर आते हैं। मेरा आशय इसलिए है कि पाठक हमसे क्यों छूट रहा है, इसकी सबसे बड़ी वजह केवल किताब महंगी होना ही नहीं है। हिंदी साहित्य वाले हिंदी से ऊबे हुए छात्र बना दिए गए। आदरणीय डीपी सर, जिस छूटे हुए पाठक की बात कर रहे हैं, वे मेरी भावना समझ रहे होंगे। आज ब्लॉगिंग को देखिए, गैर हिंदी पढे हुए लोग, दूसरे अनुशासनों में काम करने वाले, विज्ञान स्नातक, इंजीनियर आदि हैं जो हिंदी में सबसे रचनात्मक ढंग से काम कर रहे हैं। मेरे अपने अखबार में जिन लोगों ने हिंदी साहित्य पढा है, वे सबसे खराब पत्रकार हैं। संवेदना और समझ के लिहाज से। अब आप पत्रकारिता के गिरते स्तर पर मत जाइए। वो जितनी गिर गई है, उससे भी गिरी हुई और गई बीती पत्रकारिता हिंदी साहित्य पढकर आए लोग कर रहे हैं। हम सब जानते हैं कि साहित्य और पत्रकारिता का पुराना रिश्ता क्या रहा है और अब क्या रह गया है। पर साहित्य कोई पत्रकारिता का मोहताज नहीं है। वह बचेगा। यह बात भी विषयांतर के साथ कहना जरूरी है।
तो हमें जिन पाठकों को पकड़ना चाहिए या जिनकी चिंता करनी चाहिए वे ज्ञान के दूसरे अनुशासनों के लोग हैं, वे तुलनात्मक रूप से बौदि़धक और आर्थिक रूप से बेहतर हैं, उनके लिए कीमत से ज्यादा महत्त्वूपर्ण अच्छे साहित्य की उपलब्धता है।
दूसरी बात, हर किसी के पेट में ज्ञान और संवेदनाओं के अक्षर नहीं पचते। सुधी पाठकों का एक समुदाय है। तो क्यों हम लाखों करोडों पाठकों की चिंता करते हैं। क्यों ना भले ही सीमित लेकिन असली पाठकों पर ध्यान दें।
दूसरी भाषाओं में लुग्दी साहित्य की क्या हालत है, मैं अधिकृत तौर पर नहीं कह सकता, क्योंकि मेरा ज्ञान सीमित है। लेकिन हिंदी में यह बखूबी दिखता है। मैं उस लुग्दी की बात नहीं कर रहा हूं जो केशव पंडित, वेद्प्रकाश शर्मा या सुरेंद्र मोहन पाठक का साहित्य है। उसके तो पाठक हमसे भी ज्यादा होंगे। मैं उस मुख्यधारा के साहित्य की बात कर रहा हूं, जिसका जिक्र ओम पुरोहित कागद, दुष्यंत की चर्चा में हैं। पैसा देकर किताब छपाना, उसे मित्रों को मुफ़त बांटना, उस पर प्रतिक्रिया जानने को व्यग्र होना। मुझे तो कभी कभी लगता है कि आज हिंदी में पाठक कम हो गए हैं और लेखक ज्यादा हैं।
कितने लोग कितना कुछ लिख गए हैं। डर लगता है कि उस विरासत को खराब क्यों करूं। चुपचाप किताबें पढते हुए किसी कोने में पाठक बनें रहें।
मुझे खुद को रॉयल्टी नहीं चाहिए। मैं मेरे उन प्रिय लेखकों के लिए संघर्ष करता हुआ पाठक हूं। मैं चाहता हूं कि उनका अस्तित्व रहे। वे लिखते रहें। उनके पास लडने की लिखने की ऊर्जा रहे। आप मानें या मानें अपने तमाम वामपंथी आग्रहों के बावजूद मैं मानता हूं कि धन से वह ऊर्जा मिलती है, लेखक को वह ऊर्जा मिलनी चाहिए। आप किस क्रांति की बात कर रहे हैं। सत्यनारायण लेखक नहीं होते तो भी वे जहां रहते वहां के लोगों को एक सादगी और सहजता से जीना सिखाते। मुझे उनके ही किसी स्टूडेंट ने बताया कि गांव से आए कई जरूरतमंद बच्चों को गुमनाम तरीके से वे आर्थिक मदद करते हैं। यह सच है तो मुझे लगता है दस रुपए में क्यों बेच रहे है आप सत्यनारायण की किताब। क्या उन्हें रॉयल्टी का और पैसा नहीं मिलना चाहिए, जो उनका हक है। मतलब कोई लेखक भला है, तो उसकी भलमनसाहत के बूते ही उसे मार डालेंगे क्योंकि हमें पाठक को सस्ती किताब देनी है। सत्यनारायण को आप रॉयल्टी देंगे तो वह किसी जरूरतमंद की फीस भरने के काम आएगी।
रही बात फ्रांस की क्रांति से लेकर आजादी के आंदोलन में लेखकों की भूमिका को लेकर। क्या बात करने का हक है हमें। हम सब डरे हुए लोग हैं। अपने अपने दडबों में सुरक्षित। राज्य की अकादमियों की हालत पर क्या कभी राजस्थान से लेखकों की टिप्पणी आई। प्रतिरोध आया कहीं से। क्या आपको पता है कि जवाहर कला केंद्र एक स्वायत्त कला संस्थान है और एक आइएएस अफसर पिछले करीब ढाई साल से वहां अपने ढंग से काम कर रही है। मुझे किसी ने बताया कि इनका तबादला इसलिए नहीं हो सकता कि वे एक सीनियर आइएएस हैं, इससे खराब जगह उनके लिए और कोई नहीं है। यानी यह उनके लिए पनिशमेंट पोस्टिंग है, तो लेखक कलाकारों के लिए यह क्या है, इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। पिछले साल पूरे मार्च के महीने में लाखों रुपए जवाहर कला केंद्र मे उडाए गए। बिना दर्शकों के भी हर रोज कोई ना काम आयोजन किया गया क्योंकि मार्च खत्म होने से पहले बजट को ठिकाने लगाना था। क्या हमको पता है कि यह तय करने का हक एक अधिशासी समिति का होता है जिसमें रंगकर्मी, लेखक, कलाकार सब होने चाहिए। वो समिति आज तक बनी ही नहीं। सरकार ने बनाई ही नहीं। ना ही बनाने की उसे फिक्र है। मैंने एक भी लेखक और कलाकार को यह कहते नहीं सुना कि यह हो क्या रहा है। बैठते सब लोग एक जाजम पर। धरने पर बैठ जाते जवाहर कला केंद्र के बाहर कि ये फिजूलखर्ची रूकनी चाहिए। सीएम को चिटठी ही लिखते। अखबार भी मजबूरन लेखक की आवाज को उठाते। लेकिन कोई प्रतिक्रिया ही नहीं आती। लेखक हैं लेकिन बेखबर है कि आस पास क्या हो रहा है। हमारे आंदोलनकारी आदरणीयों को डर है कि उन्हें धरने पर देख लिया गया तो अकादमियों के पुनर्गठन के दौरान उन पर ध्यान कौन देगा।
असल में क्रांति पाठक को सस्ती किताबें से नहीं होती। वो तो जमीन पर ही होती है। अपने दौर के महान लेखकों ने अपने समय में क्रांतियों में सक्रिय हिस्सेदारी ली। हम सौभाग्यशाली हैं कि लोकतंत्र में हैं। हम बयान तो दे सकते हैं। अखबार नहीं छापते हैं तो क्या हुआ। फेसबुक पर ही दें। छोटी सी आवाज भी अहमियत रखती है। देवयानी ने सही कहा था कि फेसबुक लोगों को अभिव्यक्त कर रहा है, भले ही उनको कोई प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं है। पत्रकार भाई आलोक तोमर ने इसे एक अभियान की तरह इस्तेमाल किया है। वे कामयाब भी हैं।
इतने बडे मुद़दे हमारे सामने हैं, फिर भी हम लेखक की पीठ पर धौल जमाते हुए कह रहे हैं, लिखता रह उस्ताद, फल की चिंता मत कर। लेखक ही नहीं बचेगा जिस दिन तो पाठक का क्या अचार डालेंगे आप। आप प्रकाशक को लाख गाली देते हैं। वो है तो आप लेखक है ना। वो कमीशन इसलिए खाता है कि खुजली आपकी है। प्रकाशक नहीं रहेगा, तो लेखक क्या जनसभाओं संबांधित करते हुए अपनी कहानी सुनाएगा। उससे बात की जा सकती है, अपने हक के लिए। बड़ी मुश्किल से कोई उपयुक्त प्रकाशक पनप रहा है तो क्यों उसे खत्म करने पर तुले हैं। फिल्म इंडस्ट्री में तमाम मूर्खता के बावजूद प्रोडयूसर की इज्जत बहुत होती है, क्योंकि वो है तो सिनेमा बनेगा। वो अच्छा बनेगा या बुरा बनेगा बाद की बात है। बुरे को लोग खारिज कर देंगे। किताब का पाठक सिनेमा के दर्शक के कहीं ज्यादा सुकोमल है। उसने एक बार आपको खारिज कर दिया तो आप हमेशा के लिए गए काम से। लेखक की छवि लिखने से बनती है और प्रकाशक वो क्या छाप रहा है इससे बनती है। जयपुर के कितने कोनों में चालू टाइप प्रकाशन है जिनकी किताबें लाइब्ररी के लिए छपती है। वह लुगदी है। रद़दी है। यह साहित्यिक अपराध है। जिन प्रकाशकों का बड़ा नाम हे वह इसलिए है कि उनकी किताबें आप हम जैसे पाठक पढना चाहते हैं। उनका बडा नाम इसलिए नहीं है कि वे लाइब्रेरीज में ज्यादा किताबें देते हैं और उनका मुनाफा ज्यादा है। आप वहन नहीं कर सकते। दस रुपए में तीसरा या चौथा खंड लुगदी ही छपने का खतरा है। उससे कैसे बचेंगे आप। जो बनाएंगे, वे ही पाठक आपको छोडकर चले जाएंगे।
प्रकाशक मायामृग को आपने महान बना दिया। पाप का चौथा हथियार श्रद़धा ही है, चढा दो। उसने बहुत क्रांतिकारी काम किया है। माया मेरे मित्र हैं, मेरा हक है उन पर, मैं पूछता हूं घाटा उठाकर यह काम क्यों किया है। इस योजना का पहला एसएमएस एक पत्रकार मित्र से ही आया था कि सौ रुपए में दस किताबें। आपमे से कितने लोग जानते हैं कि उसने खुद ने अपनी किताब को पच्चीस रूपए में बेचा है। मेरे जिन परिचितों को उसने यह किताब बेची है, वह तरीका निहायत खराब था। पहले सौ रूपए मांगे और फिर उनकी सहमति की परवाह किए बिना चार किताबें थमा दीं। यह संकेत देते हुए कि एक तुम पढो बाकी तीन बेचकर अपने पिचहतर रुपए बचा सकते हो तो बचा लो। यह किताब की मल्टीलेवल मार्केटिंग हैं। तो प्रिया परिवार, एमवे के उत्पाद बेचने से हमने यह सीख लिया। सब लोग पीठ पीछे उसकी इस हरकत को बुरा कह रहे थे। मैंने नहीं ली उसकी भी किताब। मैंने पत्रकारिता पर कम ही किताबें पढी हैं लेकिन वह एक कमजोर किताब है। वो मेरा सहकर्मी मित्र रहा है, इसलिए पूरे हक से मैं कह सकता हूं, उसे नहीं लिखनी चाहिए थी, िलख ही दी तो अच्छा है पर ऐसे बेचनी नहीं थी। मेरी जानकारी के अनुसार किताब बिकी अच्छी खासी है। उसके पास एक कमजोर किताब को बेचने की भी कला है। लेकिन आपका पाठक तो खराब हुआ। अगली बार मांगने से वह सौ रुपए नहीं देगा। भेडिया सचमुच जिस दिन आएगा, उस दिन मदद को कोई नहीं आएगा। आप पाठक की मासूमियत का फायदा मत उठाइए। लेखक की छपास की बीमारी से बचिए। एक उपयुक्त प्रकाशक को बचाना भी उतना ही जरूरी है जितना एक लेखक और पाठक को बचाना जरूरी है। इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है।
हमारा वह मित्र भी इस अभियान का हिस्सा है। वहीं से मुझे यह खयाल आया है। अरे भाई, आप पच्चीस रुपए कीमत रखिए ना। चलिए इस सोल्यूशन पर आते हैं, जो निहायत मेरा है, माया इसे मानें या मानें उनकी मर्जी।
आप पच्चीस रुपए कर दीजिए कीमत। शायद इससे छपाई की लागत और लेखक और आपका भी कुछ हिस्सा बनेगा। सौ रुपए में आप चार किताबें दीजिए ना। यह योजना भी उतनी ही आकर्षक है जितनी दस किताबों की। बस इतना करिए कि लुगदी साहित्य को बाहर निकाल दीजिए। समझदार लेखकों को एक संपादक मंडल बना लीजिए, उसका वे पैसा भी नहीं लेंगे, यहां लेना भी नहीं चाहिए। यह लेखकों का ही फर्ज है कि पाठक के सामने अच्छा साहित्य जाए। क्या हमारा फर्ज नहीं कि हम प्रभात के गीतों की किताब बंजारा नमक लाया को व्यापक पाठक वर्ग तक पहुंचाएं। यकीन है इसमें सिफारिशी लेखकों की किताबें नहीं आएंगी। पाठक लेखक प्रकाशक तीनों का भला है, बहस मेरे खयाल से बहुत हो गई समाधान पर आएं। किसी के पास इससे बेहतर समाधान है तो वह भी आना चाहिए।
ये किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं हैं। लेखक हैं तो आपका जीवन सार्वजनिक है, एक आध टिप्पणी होती है। हमारी हरकतों से लेकर रचनाकर्म तक पर लोग बोलेंगे। बुरा नहीं लगना चाहिए। लगे तो इसका उपचार भी हम स्वयं को ढूंढना होगा। तीन दिन से तर्क वितर्कों के बाद मुझे खीज हो रही है कि बातों को तार्किक ढंग से ही सुलझाएं तो बेहतर। आप समझिए मुझे गिरिराज भाई की प्रतिलिपि से क्या दुराग्रह होगा। वे एक अच्छी पत्रिका निकाल रहे हैं। गिरिराज बचने चाहिए, प्रतिलिपि बचनी चाहिए, पाठक भी इसी गुणवत्ता की वजह से बचेगा। इसलिए नहीं कि आपने उसे सस्ती किताब दी इसलिए वह पढ रहा है। मायामृग भी बचने चाहिए। पुस्तक पर्व भी बचना चाहिए। पाठक की जेब का कुछ पैसा भी बचना चाहिए लेकिन उसकी गुणवत्ता की भूख शांत होनी चाहिए। कुल मिलाकर बात यह है कि सबसे ज्यादा जरूरी है किताब बचनी चाहिए। वो तब बचेगी जब लेखक बचेगा, जब पाठक बचेगा और प्रकाशक बचेगा।
1 टिप्पणी:
यहां वो सब होता है जिसकी हम कल्पना तक नहीं करते
एक टिप्पणी भेजें