
यह कोई अठारह साल पुरानी बात है, जब पहली बार मैंने कॉलेज की पढाई के लिए गांव छोडक़र शहर का रुख किया था। पिताजी मेेरे साथ थे। वे चाहते थे कि जिस घर मैं रुकने वाला हूं, वहां बस स्टैंड से उतरने के बाद सिटी बस से ही चला जाए। मेरी जिद पर उन्होंने ऑटो वाले को बस के मुकाबले दस गुना किराया दिया। मैं नया था। गलत रास्ते पर ऑटोवाले को ले गया। तय रकम से उसने पांच रुपए ज्यादा लिए। पिताजी ने अनमने भाव से दिए लेकिन ऑटो वाले के जाते ही मेरी खैर नहीं थी। मुझे पांच रुपए की कीमत पर लंबा व्याख्यान सुनना पड़ा कि शहर में घुसते ही यह हाल है, पता नहीं आने वाले दिनों में मेरे खून-पसीने की कमाई को कैसे लुटाओगे?
हर पिता की इच्छा होती है, उसकी काली-सफेद कमाई का उपभोग केवल उसका पुत्र ही करे लेकिन वह कतई नहीं चाहता कि वह उसका दुरुपयोग करे। समस्या यहीं से शुरू होती है। जो पिता की नजर में दुरुपयोग है, वह पुत्र की नजर में नहीं। पिता बस से आकर पचास रुपए काम पांच रुपए में निकाल रहे थे और मैंने ऑटोवाले को पांच रुपए की तो टिप ही दे दी।
अगले दिन पिता गांव लौट गए और पहला पुण्य काम मैंने किया कि उन्हें बस में बिठाते ही लक्ष्मी मंदिर में टिकट खिडक़ी से टिकट खरीदी और घुस गए फिल्मी दुनिया में।
इंजीनियरिंग पढने आए उदयपुर के मेरे मित्र को पहली बार पिता ही छोडऩे आए। तमाम हिदायतें देने के बाद ज्योंही पिताजी वापस गए, उन्होंने तुरंत शराब की दुकान तलाशी और गटका ली एक बीयर। पिताजी की हिदायतों की पोटली चुपके से उनके ही सूटकेस में उन्होंने वापस भेज दी थी।
पिताओं के तमाम प्यार और देखभाल के बावजूद पुत्रों की एक अपनी दुनिया है, जहां एक उम्र के बाद वे पिता की घुसपैठ बर्दाश्त नहीं करते। कुछ पिता समझदार होते हैं। उस दुनिया से खुद को बाहर कर लेते हैं।
मेरे एक मित्र को किसी ने खबर दी कि उनके बेटे को कल उन्होंने सिगरेट पीते देखा था। उन्हें ताज्जुब नहीं हुआ। अगले दिन उन्होंने नाश्ते की टेबल पर बच्चे को कहा, ‘छोटी उम्र में सिगरेट पीने से फेफड़े खराब हो जाते हैं, बाकी तुम्हारी मर्जी।’ बालक ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, उस मित्र ने मुझे बताया कि मैं मान ही नहीं सकता कि उसने सिगरेट पीनी बंद कर दी होगी, मैं भी तो ऐसा ही था उसकी उम्र में।
विख्यात लेखक काफ्का ने अपने पिता के व्यवहार को लेकर उन्हें एक लंबी चिट्ठी लिखी थी किस तरह उनकी हिदायतें उसे नागवार गुजरती थीं और उसे गुस्सा आता था। यह पत्र एक साहित्यिक दस्तावेज है। ज्यादातर पुत्रों के हालात यही हैं।
पिता होने के दुख ही यही हैं कि अपने ही घर में दो पीढियों की मौजूदगी में वह पिसता है। जो उसे सही लगता है, वह बेटा नहीं मानता। वह जो कर रहा होता है, उसे उसके पिता सही नहीं मानते। दादा होने की अवस्था में आदमी पुन: आधुनिक होता है और उसे अपने पोते की बातें अपेक्षाकृत सही लग रही होती हैं। समस्या यह है कि उसे पता होता है कि जो घटित हो रहा है, वो विकास और सोच की सतत प्रक्रिया होती है, यदि वह उसे नहीं भोगेगा तो जिंदगी हाथ से खिसक ही रही है, किसी भी दिन सांसों का चिराग बुझ जाएगा। आज का पिता कल का दादा बनेगा और उसे अपने पोते की बातें ज्यादा ठीक लगेंगी। गांव में इसीलिए लोग कहते हैं, मूलधन से ज्यादा प्यारा ब्याज होता है। दादा के लिए पिता मूलधन है, पोता ब्याज है। पिता पुत्र को हमेशा दूर रखता है, पोते को हमेशा करीब रखना चाहता है। कितनी ही फिल्में, कितने ही स्कॉलर और समाजविज्ञानी यह बात समझा चुके हैं कि पिता को अपनी अपेक्षाओं का बोझ पुत्र पर नहीं लादना चाहिए। पिता के कंधे हमेशा मजबूत होते हैं, वह पूरे परिवार का बोझ उठाता है। पुत्र के कंधे इतने मजबूत नहीं होते, वह बोझ लेकर चल ही नहीं सकता है। अंगुली पकडऩे के दिनों से छुटकारा पाकर वह उच्छृंखल होकर अपने सपनों की एक दुनिया बनाना चाहता है, जहां उसके दोस्त, उनकी प्रेम कहानियां, अलमस्ती और दुनिया को जूते की नोंक पर रखने का रवैया लिए झूमते रहते हैं। पिता बनने के बाद वे भी उसी तरह अपेक्षाओं और जिम्मेदारियों की पोटली का बोझ महसूस करने लगते हैं। ऐसे कितने ही मेरे मित्र हैं जो यूनिवर्सिटी कॉलेज के दिनों में प्रोफेसर्स की नाक में दम किए रहते थे, आज सुबह शाम मंदिरों में सिर नवाते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनका पुत्र वह सब नहीं करे, जो आवारगी उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों में छानी। यह कैसे मुमकिन है?
नए जमाने के पिता अपने पुत्रों से मित्रवत व्यवहार की बात करते हैं लेकिन यह तब तक ही संभव है, जब तक उनके बेटे वयस्क नहीं हुए हैं। वयस्क पुत्र स्वयं ही कहते हैं, उनके इतने बुरे दिन नहीं आए कि पिता की उम्र के दोस्त रखने पड़ें। मैं इस पूरे दौर में पुत्रों के साथ हूं। पिताओं से सहाुनभूति दर्शा सकता हूं, उनके लिए दुआ कर सकता हूं कि वे दादा बनने का इंतजार करें ताकि अपने विचारों को आधुनिक बनाने का साहस जुटा सकें। आमीन।